{ श्री अचल सागर जी महाराज की कलम से }
पिछले लेख में आपने स्वर्ग की दूसरी सीढ़ी के बारे में पढ़ा जिसमें हमने आपको बताया कि बच्चा अपने जन्म लग्न के उपरांत सुख और दुःख को भोगने के योग्य बन जाता है। वहीं दूसरी और अपने बच्चे को देखकर माता पिता को हर्ष होता है।
सामुद्रिक शास्त्र में भी इस बात का वर्णन है कि मनुष्य का प्रारब्ध पहले रचा जाता है उसके बाद उसके शरीर का निर्माण किया जाता है और माता पिता के सुखों के साथ भी बच्चे का बंधन हो जाता है।
इसके बाद स्वर्ग की तीसरी सीढ़ी का जिक्र आता है, इसमें बालक धीरे धीरे अपने माता पिता और गुरुओं की बात को सीखने और समझने लगता है। उसके अंदर अच्छाई और बुराई का भेद समझने की ताकत आ जाती है।
जो बच्चे अपने माता पिता के साथ रोज़ मंदिर जाते है, ईश्वर को समझने की कोशिश करते है उन बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है। लेकिन जो बच्चे माता पिता और गुरुओं की बातों को मन में नहीं बिठाते है और समझने नहीं है उनका विकास नहीं होता है।
अपने बड़ो के द्वारा बतलायी गयी बात का चिंतन करना बड़ा ज़रूरी होता है क्योंकि इससे व्यक्ति विशेष की वास्तविकता का बोध होता है। ऐसा बच्चा पुस्तकों को रटता नहीं है बल्कि अध्ययन करता है और होनहार होता है।