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जानिए, प्राणायाम के विभिन्न प्रकार और फायदे

By RNI Hindi Desk 
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प्राणायाम के लिए आसन का सिद्ध होना आवश्यक है। वास्तव में यम-नियम योग के साक्षात् अंग हैं। योग-मार्ग पर चलते हुए प्रत्येक दशा में इनका पालन आवश्यक है। परन्तु आसन ऐसा अंग नहीं है। योग में आसन का उपयोग प्राणायाम के लिए अपेक्षित होता है। आसन सिद्ध हुए बिना प्राणायाम को सुविधापूर्वक नहीं किया जा सकता—इसी कारण आसन को योग का अंग माना जाता है। योग के अगले स्तरों पर चढ़ने के लिए प्राणायाम यम-नियम के समान अत्यावश्यक साधन है।

उपर्युक्त आसन साधकर जब साधक प्राणायाम का अभ्यास करने के लिए बैठता है तब बाहर की हवा को अन्दर लम्बा खींचकर ले जाना सांस है। इसी प्रकार अन्दर की हवा को बाहर गहराई से निकाल देना प्रश्वास कहा जाता है। साधारणतया श्वास-प्रश्वास नियमित रूप में बिना किसी रूकावट के सदा चलते रहते हैं परन्तु ऐसा चलना प्राणायाम का स्वरूप नहीं है। प्राणायाम तभी होता है जब श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति में विच्छेद (एक प्रकार का व्यवधान या रुकावट) डाला जाए।

श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को कभी रोका नहीं जा सकता-उसमें अन्तर डाला जा सकता है। सांस रुक जाने पर तो जीवन समाप्त हो जाएगा। इसलिए सूत्र के विच्छेद पद का तात्पर्य है-गति में व्यवधान या रुकावट डाल देना। इस प्रक्रिया से श्वास-प्रश्वास रूप प्राण बन्द न होकर उसका आयाम अर्थात् विस्तार होता है। उसमें श्वास का समय अधिक देर तक रहता है।

अलग-अलग बीमारियों के अनुसार प्राणायाम के लाभ :

  • भ्रत्रिका-प्राणायाम- सर्दी, जुकाम, एलर्जी, श्वास रोग, दमा, पुराना नजला, साइनस, थायराइड, टॉन्सिल, गले के समस्त रोग आदि विकारों में लाभ होता है। शरीर के विषाक्त तथा विजातीय द्रव्यों का निष्कासन होता है व हृदय तथा मस्तिष्क को शुद्ध प्राणवायु मिलने से आरोग्य लाभ होता है।
  • कपालभाति-प्राणायाम- समस्त कफज विकार दमा, एलर्जी, साइनस, मोटापा, मधुमेह, गैस, कब्ज़, अम्लपित्त, वृक्क तथा प्रोस्टेट से सम्बन्धित विकार, आमाशय, अग्नाशय तथा यकृत्-प्लीहा विकारों में लाभ होता है।
  • बाह्य-प्राणायाम स्वप्नदोष, शीघ्रपतन आदि धातु विकारों तथा उदर रोग, गुदभ्रंश, अर्श, फिशर, भगन्दर, योनिभ्रंश, बहुमूत्र एवं यौन रोगों में लाभ प्रदान करता है। इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
  • उज्जायी-प्राणायाम नजला, जुकाम, पुरानी खांसी, थायराइड ग्रन्थि की कम अधिक क्रियाशीलता से उत्पन्न विकार, हृदय रोग, फुफ्फुस एवं गले के रोग, अनिद्रा, मानसिक तनाव, टॉन्सिल, बदहजमी, आमवात, जलोदर, टी बी तथा बुखार में लाभ प्रदान करता है।
  • अनुलोम-विलोम कैंसर, श्वित्र आदि त्वचा-विकार, सोरायसिस, मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी, एस. एल. ई., नपुंसकता, एड्स, जुकाम, अस्थमा, खांसी, टॉन्सिल आदि कफज विकार तथा कॉलेस्ट्राल जन्य-विकारों में लाभ होता है।
  • भ्रामरी- प्राणायाम कैंसर, अवसाद, आधाशीशी का दर्द, हृदय-विकार, नेत्र रोग, मानसिक तनाव, उत्तेजना तथा उच्चरक्तचाप आदि में लाभप्रद होता है।
  • उद्गीथ-प्राणायाम सांस आदि कफज-विकारों में लाभप्रदः।
  • प्रणव-प्राणायाम अवसाद आदि मानस-विकारों में लाभप्रद।

विभिन्न बीमारियों में की जाने वाली षट्कर्म की क्रियाएं

रोगोपचार व शरीर की शुद्धि के लिए षट्कर्म के अन्तर्गत नेति, धौति व वमन तथा शंख प्रक्षालन आदि क्रियाओं द्वारा शरीर शोधन किया जाता है। क्रियाओं के अभ्यास भी किए जा सकते हैं, परन्तु ये सभी क्रियाओं को किसी योग एक्सपर्ट की देख रेख में किया जाना चाहिए।

षट्कर्म की क्रियाएं स्थूल शरीर को शुद्ध करती हुई सूक्ष्म शरीर के शुद्धिकरण में अत्यन्त सहायक हैं। इन क्रियाओं के अभ्यास से कफज-विकार, वातज-विकार, पित्तज-विकार, कुष्ठ रोग, उदर रोग, फुफ्फुस-विकार, हृदय एवं वृक्क की विकृतियां दूर होती हैं।

  • नेति (जलनेति, सूत्रनेति तथा घृतनेति)- मुख्यतया नासा मार्ग के शोधन हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। नेति के अभ्यास से नासा-विकार, कण्ठ-विकार, दृष्टि-विकार, नेत्रदाह, नेत्रशोथ, नासाशोथ आदि ऊर्ध्वजत्रुगत विकारों में लाभ होता है तथा कपाल का शोधन होता है।
  • धौति – (वमनधौति, वस्त्रधौति, दण्डधौति तथा कुंजरक्रिया)- प्रधानतया उदर शोधन के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। धौति के अभ्यास से अम्लपित्त, अग्निमांद्य, अरुचि, श्वास-कास, दमा, प्लीहा-विकार, गुल्म, कुष्ठ, जीर्ण जठरशोथ आदि विकारों में लाभ होता है।
  • शंखप्रक्षालन- इसके प्रयोग से उदर रोग, कब्ज़, मन्दाग्नि, अम्लपित्त, मधुमेह, श्वास, हृदय रोग, शिर:शूल, जिह्वा-विकार, नेत्र-विकार आदि विकारों में लाभ होता है।
  • बस्ति (जलबस्ति, पवनबस्ति)- प्रधानतया पक्वाशय शोधन के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। इससे बड़ी आँत की शुद्धि होती है तथा धातु-विकार, विबन्ध व स्वप्नदोष में लाभ होता है। नोटः– अर्श, भगन्दर, आन्त्रव्रण एवं गुदशोथ में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  • त्राटक- प्रधानतः नेत्रगत मल एवं प्रकुपित कफ के शोधन हेतु इसका प्रयोग किया जाता है। इसके प्रयोग से नेत्रगोलक की मांसपेशियों को बल मिलता है, दृष्टिशक्ति बढ़ती है और आलस्य, निद्रा आदि का शमन होता है।
  • नौलि (मध्यनौलि, दक्षिणनौलि एवं वामनौलि)- उदरगत अवयवों एवं मांसपेशियों का उत्तम व्यायाम होता है। इसके अभ्यास से पाचन क्रिया में सुधार होता है। मासिक-धर्म के विकारों एवं जननेन्द्रिय-विकारों में इसका अभ्यास बहुत हितकर है।

योग करते समय इन बातों का भी विशेष ध्यान रखें

  • सभी यौगिक क्रियाओं का अभ्यास विधि व समयबद्ध रूप से मध्यम-गति व शारीरिक क्षमतानुसार करना चाहिए, अत्यधिक जोर नहीं लगाना चाहिए। योगासन व प्राणायाम के लिए स्वच्छ वायु युक्त, हवादार स्थान सर्वोत्तम होता है। (अधिक सर्दी के समय अपनी सहनशक्ति के अनुसार कमरे के न्यूनतम तापमान पर अभ्यास कर सकते हैं।
  • सभी व्यायाम व योगासन प्रात: खाली पेट करना उत्तम है। यदि सायंकाल करना हो तो भोजन के 4 घण्टे बाद ही करना चाहिए।
  • डिस्क संबंधी समस्या में एवं कमर व पीठ के दर्द की स्थिति में आगे झुकने वाले आसनों का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
  • हार्निया, पेट की सर्जरी/ चोट के बाद तेज हृदयरोग व अन्य अल्सर आदि जीर्ण रोगों से ग्रसित व्यक्तियों को पीछे झुकने वाले या पेट में खिंचाव या दबाव पैदा करने वाले अभ्यासों को नहीं करना चाहिए।
  • आयुर्वेद में मुख्यतया तीनों दोषों (वात, पित्त, कफ) का प्रकुपित होना या विषम होना रोगोत्पत्ति का कारण माना गया गया है, तीन दोषों का सम्बन्ध विविध शरीरगत तन्त्र व संस्थानों से है। इसलिए सही ढंग से नियमानुसार आसन, प्राणायाम, ध्यान व व्यायाम करने से तीनों दोषों को सम अवस्था में ठीक रखा जा सकता है।

 

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