कोविड महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया में हाहाकार मचा हुआ था, उस समय इलाज का कोई पुख्ता तरीका नहीं था। संक्रमण से बचने के लिए सिर्फ मास्क, सामाजिक दूरी और सैनिटाइज़र जैसे उपाय ही सहारा थे। एम्स (AIIMS) के वरिष्ठ विशेषज्ञ डॉ. संजय राय के अनुसार, उस समय संक्रमण से मृत्यु दर लगभग 1.5% थी — यानी हर 10 लाख मरीजों में करीब 15,000 की जान जा रही थी। ऐसे में वैक्सीन एक बड़ा गेमचेंजर साबित हुई। भले ही यह संक्रमण को पूरी तरह रोक नहीं सकी, लेकिन इससे गंभीर बीमारी और मौत का जोखिम काफी हद तक टल गया। डॉ. राय कहते हैं कि अगर 15,000 में से 13,000 से 14,000 मौतें वैक्सीन से रोकी जा सकती थीं, तो यह एक बहुत बड़ा लाभ था।
डॉ. राय ने बताया कि भारत में कोविड टीकाकरण 16 जनवरी 2021 को शुरू हुआ। उस समय देश की अधिकांश आबादी ना तो पहले संक्रमित हुई थी और ना ही उनमें प्राकृतिक इम्युनिटी थी। वैक्सीनेशन ने इस अंतर को भरने का काम किया और गंभीर मामलों की संख्या में तेज़ी से गिरावट देखने को मिली। हालांकि कुछ दुर्लभ साइड इफेक्ट्स जैसे हार्ट से जुड़ी समस्याएं (कार्डियोमायोपैथी) और ब्लड क्लॉटिंग की शिकायतें खासकर mRNA वैक्सीन (जैसे Pfizer) में देखने को मिलीं, लेकिन उनका प्रतिशत बहुत कम था — हर 10 लाख में 20-50 मामले। यानी जब लाखों की जानें बच रही थीं, तो यह जोखिम तुलनात्मक रूप से बेहद मामूली था।
बच्चों को वैक्सीन देने के मुद्दे पर डॉ. राय का मत स्पष्ट है। उनका कहना है कि दुनियाभर के आंकड़ों से यह साबित हो चुका है कि 18 साल से कम उम्र के बच्चों में कोविड से मृत्यु का खतरा लगभग न के बराबर था। यहां तक कि भारत की दूसरी लहर के दौरान भी, जब संक्रमण का स्तर चरम पर था, तब भी बच्चों में गंभीर बीमारी और मृत्यु नहीं देखी गई। ऐसे में उन्हें वैक्सीन देने से ज्यादा नुकसान की आशंका थी। भारत सरकार ने इस तथ्य को समझते हुए बच्चों के वैक्सीनेशन से परहेज किया — जो कि एक वैज्ञानिक और प्रमाण-आधारित निर्णय था। डॉ. राय ने कहा कि हर देश की स्वास्थ्य रणनीति उसकी जनसंख्या, संसाधन और उपलब्ध डेटा पर निर्भर करती है। भारत ने वैक्सीनेशन के फैसले ‘एविडेंस-बेस्ड मेडिसिन’ के सिद्धांत पर लिए और लाखों जानें बचाईं — यही आधुनिक चिकित