पिछले 2 दिनों से दुनिया की राजनीति में भूकंप मचा हुआ है और उसका सबसे बड़ा कारण है ईरान के एक सैन्य कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या। अमरीका ने एक हवाई हमला करते हुये कासिम सुलेमानी को मार डाला जिसे वो 40 साल से अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है। अमरीका ने उन्हें आतंकवादी घोषित कर रखा था.
कासिम का मारा जाना अमेरिका के लिये कितना मायने रखता है वो इस बात से साबित होता है की अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने ट्वीट करते हुए सिर्फ अमरीकी झंडा लगाया यानी की वो कासिम को मारे जाने की घटना को गर्व से देखते है।
जनरल सुलेमानी ईरान के सबसे ताकतवर लोगो में से एक है, ईरान में सर्वोच्च नेता धार्मिक गुरु होता है जो फिलहाल आयतोल्लाह अली ख़ामेनेई है, कुर्दस सेना माना जाता है की सीधे उन्ही को रिपोर्ट करती है। ईरान में किसी को दूसरा सबसे ताक़तवर शख़्स समझा जाता था तो वो थे – जनरल क़ासिम सुलेमानी.
सुलेमानी ने इराक़ और सीरिया में इस्लामिक स्टेट के मुक़ाबले कुर्द लड़ाकों और शिया मिलिशिया को एकजुट करने का काम किया. हिज़्बुल्लाह और हमास के साथ-साथ सीरिया की बशर अल-असद सरकार को भी सुलेमानी का समर्थन प्राप्त था.
क़ुद्स फोर्स दरअसल एक तरह से ईरान की विदेश सेना है जो देश के बाहर ईरानी हितो के हिसाब से रियेक्ट करती है और ऑपरेशन्स को अंजाम देते है, अप्रैल में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ईरान रिवोल्यूशनरी गार्ड्स समेत क़ुद्स फ़ोर्स को “विदेशी आतंकवादी संगठन” क़रार दिया था लेकिन ये बात अलग है की ईरान ने ये कहते हुए अमेरिका का मज़ाक बनाया था की अमेरिकी सेना तो खुद आतंकियों की सेना है।
ट्रम्प के बयान से पहले हमें ईरान से आयी प्रतिक्रिया समझनी होगी, दरअसल कासिम सुलेमानी की मौत के बाद ईरान की सबसे पवित्र मस्जिद पर लाल झंडा फहराया गया है जिसका अर्थ युद्ध की शुरुआत से लगाया जाता है, दूसरी और ईरान के सर्वोच्च नेता आयतोल्लाह अली ख़ामेनेई ने साफ़ शब्दों में बयान दिया है की कासिम सुलेमानी की मौत का बदला तो लिया ही जायेगा।
उसी के जवाब में ट्रंप ने ट्वीट किया है की अमरीका ने ऐसी 52 ईरानी जगहों को चिह्नित कर लिया है जो काफ़ी महत्वपूर्ण हैं और ईरान और उसकी संस्कृति के लिए अहम हैं. वो निशाने पर हैं, ईरान अगर अमरीका पर हमला करता है तो बहुत तेज़ी और मज़बूती से हमला किया जाएगा।
ट्रंप ने अपने ट्वीट में कहा, ’52 अंक उन लोगों की संख्या को दर्शाता है, जिन्हें एक साल से अधिक समय तक तेहरान में अमेरिकी दूतावास में 1979 में बंधक बनाकर रखा गया था।
आपको बता दे की 4 नवम्बर 1979 को ईरान के तेहरान में अमेरिकी दूतावास में 90 लोगों को बंधक बना लिया गया था जिसमे 66 अमरीकी थे, इस घटना को समझने से पहले हमें 1953 में हुई एक और घटना को समझना होगा। दरअसल इसी साल अमेरिका और ब्रिटेन ने ईरान में तख्ता पलट किया था। मोहम्मद मोसादेग जिन्हे की सत्ता से हटा दिया गया वो लोकतान्त्रिक तरीके से चुने हुए नेता थे।
यह पहला मौका था जब अमेरिका ने किसी देश के आंतरिक मसलो में इतना बड़ा दखल दिया हो, और उसके 25 साल बाद खुमैनी की सरपरस्ती में ईरान में क्रांति शुरू हुई, और 1980 में सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला बोल दिया था जिसका साथ अमरीका ने दिया। 8 साल चले युद्ध में 5 लाख लोगों को जान की आहुति देनी पड़ी थी।
दरअसल 1978 में ईरान में शाह पहलवी का राज़ था लेकिन उनके खिलाफ लोगो में आक्रोश पैदा होने लग गया था, 1979 की शुरुआत में ही पहलवी मिस्र चले गये जिसके बाद अयातुल्लाह खोमैनी को लोगो ने अपना नेता चुना, अक्टूबर में शाह पहलवी चले गए अमरीका क्यूंकि उन्हें कैंसर था और उसके अगले महीने ही तेहरान में अमेरिकी दूतावास में लोगो को बंधक बना लिया गया।
4 नवम्बर को जैसे ही बंधक बनाये जाने का वाकया हुआ उसके ठीक 2 दिन बाद खुमैनी के हाथ में सत्ता आ गयी, उस वक़्त अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर थे, उन्होंने ईटेलिजेंस कमिटी स्टाफ के डायरेक्टर विलियम मिलर को इरान भेजा लेकिन उनसे खुमैनी ने मुलाकात नहीं की उल्टा इसका परिणाम ये हुआ की अमरीका ने उसके बैंको में रखी सारी ईरानी संपत्ति फ्रिज कर दी।
इसके बाद 19 और 20 तारीख को कुछ बंधक छोड़ दिये गये और उसके बाद कुल 53 बंधक ईरान की कैद में थे, मार्च 1980 में शाह पहलवी फिर ईरान आ गये, अप्रैल 1980 तक यह तनाव इतना बढ़ गया था की अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगा दिये और सभी ईरानी अधिकारियों को देश छोड़ने का फरमान सुना दिया।
11 जुलाई को एक बीमार बंधक को छोड़ दिया गया और अब कुल बंधक थे 52, इसी बीच शाह पहलवी की मौत हो चुकी थी और सद्दाम हुसैन ईरान पर हमला कर चुके थे।
सितम्बर आते आते खुमैनी ने शर्त रखी की अमेरिका अपने रवैये में नरमी दिखाये और संपत्ति को अनफ्रीज करे जिसके बाद US को ईरान की शर्तो पर झुकना पड़ा और 19 जनवरी 1981 वो ऐतिहासिक तारीख थी जब अमेरिका ने समझौते पर साईन कर दिया और आख़िरकार उसके अगले दिन सभी को रिहा कर दिया और वो सकुशल US पहुंचे।
अब यही वो 52 अंक का दर्द है जिसका जिक्र ट्रम्प कर रहे है क्यूंकि अमेरिका आज भी इसे अपनी नाकामी के तौर पर देखता है।