आज फिर गोली लगी है पुलिस-महकमें को, आज फिर गोली लगी है उस समाज को, जिसकी बात, जिसके मुद्दे, जिसके सरोकार, एक पत्रकार उठाता है। लेकिन अफसोस इस सभ्य समाज में उसी पत्रकार का खून सरेआम किया जाता रहा है। वो भी बेखौफी और बेफिक्री के साथ। आज जो तस्वीरें हम आपको दिखा रहे हैं वो बलिया के एक होनहार पत्रकार रतन सिंह के घरवालों की हैं। जो इस वारदात का शिकार हुए हैं। रतन सिंह एक होनहार पत्रकार थे और एक प्राइवेट टीवी चैनल में काम करते थे। लेकिन अचानक उनको बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। ये हत्या किसी एक पत्रकार की नहीं है…किसी एक पत्रकार को गोली नहीं लगी है। बल्कि कईयों की आवाजें खामोश की जा रही हैं। पहली गोली से कत्ल हुआ है इन रोते-बिलखते मासूमों का। गौर से देखिए, इनकी उम्र इतनी भी नहीं है जितना नियति इन्हें तजुर्बा दे गई।
बच्चे-परिजन बिलख रहे हैं। कोस रहे हैं सरकार,प्रशासन और समाज के उन ठेकेदारों को। जो अक्सर सामाजिक सरोकारों को लेकर झंडाबरदार बने रहते हैं। लेकिन अफसोस आज लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही सुरक्षित नहीं है। कहने को तो ये स्तंभ बड़ा मजबूत है,बड़ा बेधड़क है,बेखौफ है, और बेबाक है। ना जाने कितनी जिंदगियों को सजाया-संवारा होगा इसने। लेकिन खुद का कोई नहीं है। ना जाने कब किस साजिश और रंजिश का शिकार हो जाए। ना जाने कौन सी वारदात एक पत्रकार के साथ हो जाए। यूपी में अपराधियों के हौंसले इतने बुलंद हो चुके हैं कि पूछिये मत। अभी एक महीने पहले ही जुलाई की वो घटना,जब गाजियाबाद जिले के विजयनगर इलाके में पत्रकार विक्रम को मोटरसाइकिल पर आए तकरीबन आधा दर्जन बदमाशों ने मारपीट करने के बाद उसे गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। विक्रम की गलती सिर्फ इतनी ती कि वो अपनी भांजी के साथ हुई छेड़खानी की शिकायत दर्ज कराकर आया था। लिहाजा उसे सच सामने आने से पहले ही मौत के घाट उतार दिया गया। इससे पहले भी असंख्य महिला-पुरुष पत्रकारों के साथ ना केवल ज्यादतियां हुई हैं, बल्कि उन्हें मौत के मुहाने पर भी ला खड़ा किया है। कहीं-कहीं तो हत्याओं की गुत्थी ही उलझी रह गई,जिसका सुलझना शायद मुश्किल ही नहीं बमुश्किल ही लगता है। पर ये सब…आखिर क्यों? क्यों हर बार की तरह मौतों पर सियासत गरमाने लगती है। इन दिनों मीडिया पर हमले के साथ-साथ उसे डराने-धमकाने की कोशिशों के मामले भी बढ़ रहे हैं। इनका जिम्मेदार हम खुद हैं या कोई और भी। आपको सोचना ये भी है कि सरकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बचाने के लिये क्या कोई ठोस कदम उठायेगी या फिर ऐसी मामलों पर हमेशा की तरह संपादकीय कॉलम, ज्ञापन, कैंडल मार्च, व्हाट्सप, ट्विटर और फेसबुक के इंकलाबी संदेश महज टीवी चैनलों और वाद विवाद तक ही सिमट कर रह जाएंगे। भयावहता ये भी है कि जब पत्रकार को संविधान के अनुच्छेद 19 मे वर्णित अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं मयस्सर तो आम आदमी का क्या होगा। क्या सरकार को सभी मीडियाकर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करनी चाहिए। क्या ऐसे मामलों में पुलिस को जांच में तेजी नहीं लानी चाहिए और क्या ये सुनिश्चित नहीं किया जाना चाहिए मामलों में सभी जरूरी ठोस कदम उठाये जाएं ताकि दोषियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई हो सके।
Posted BY: Nandini Bhardwaj