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अमेरिका तालिबान समझौता: भारत के लिए मायने क्या ?

By: RNI Hindi Desk 
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अमेरिका तालिबान समझौता: भारत के लिए मायने क्या ?

{ स्वतंत्र पत्रकार प्रणव गोस्वामी की कलम से }

अमेरिका ने अफगान तालिबान के साथ एक अहम समझौते पर हस्ताक्षर किये जिससे लगभग 20 साल से जारी संघर्ष पर विराम लगने की उम्मीद है, अमरीका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और तालिबान के नेताओं ने क़तर की राजधानी दोहा में इस समझौते पर दस्तख़त किए.

दरअसल तालिबान संघर्ष 9/11 के बाद शुरू हुआ था जब अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ था। इसी के कारण पिछले 19 सालों में इस समझौते से जुड़े हर पक्ष के अंदर एक असहयोग की भावना रही लेकिन आखिरकार अब अमेरिका की सेनाओं का अफगान से निकलना तय हो गया है और इसके लिए 14 महीनें की समय सीमा तय की गयी है।

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स्वतंत्र पत्रकार प्रणव गोस्वामी

दरअसल दो दशक से जारी अमेरिका तालिबान संघर्ष में काफी खून बह चुका है और अमेरिका 20 खरब डॉलर खर्च करने के साथ ही अपने 3500 सैनिकों की जान खो चुका है। इस वक़्त अफगानिस्तान में अमेरिकी और नाटो सेना के करीब 18 हज़ार सैनिक है।

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इस करार में कहा गया है कि अमेरिका और अफगानी सरकार दस मार्च तक 5000 कैदियों को रिहा करेगी वही अमेरिका और नाटो उसके 5 सैन्य शिविर से 8600 सैनिकों को वापिस बुला लेंगे और 14 माह बाद पूरी तरह वो वापिस अमेरिका लौट जायेगे। इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है कि साल 2001 के बाद पहली बार ऐसा होगा की अफगान सरकार और तालिबान 10 मार्च को आमने सामने बैंठकर आगे की शांति बहाली को लेकर वार्ता करेंगे।

दरअसल साल 2016 में जब अमेरिका में प्रेजिडेंट पद के चुनाव हुए थे तब ट्रंप ने यह वादा किया था कि वो अगर चुनकर आते है तो अवश्य ही तालिबान के साथ बात करेंगे और अपनी सेनाओं को अफगानिस्तान से बाहर लाने की कोशिश करेंगे और अब इसी साल के अंत में चूंकि अमेरिका में चुनाव है तो उनका यह कदम इस बहुत महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

क्या है तालिबान और उसका इतिहास –

दरअसल तालिबान का उदय हमें समझना हो तो हमे 90 के दशक में जाना होगा जहां अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेनाओं का कब्जा था, भारत के साथ 71 की जंग हारने के बाद पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी ISI ने तालिबान को जन्म दिया, माना जाता है की अमेरिका की भी इसमें सहमति थी, आख़िरकार नजीबुल्लाह को हटा दिया गया और सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से लौटने के बाद वहां एक राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई जिसके कारण अलग अलग गुटों में संघर्ष शुरू हो गया।

वैसे बहुत कम लोग इस बात को जानते है पश्तों भाषा में तालिबान का अर्थ विद्यार्थी संघठन होता है और यही कारण था की छोटे छोटे बच्चों में इसकी लोकप्रियता बढ़ी। अफगानिस्तान में तालिबान 1994 में लोकप्रिय हुआ जब उसने शरिया कानून लागू करने की बात कही और पाकिस्तान से सटे पश्तूनी इलाकों में शांति बहाली की पेशकश की।

दक्षिण पश्चिम इलाकों से आगे बढ़ते हुए तालिबान ने सितम्बर 1995 में ईरान की सीमा से सटे हेरात पर कब्ज़ा कर लिया, माना जाता है कि इनको सऊदी अरब से मदद मिलती थी। इसके एक साल बाद तालिबान ने तत्कालीन प्रेजिडेंट रब्बानी को बेदखल कर दिया और काबुल पर अपना कब्जा कर लिया। 1998 आते आते तो अफगानिस्तान के 90 फीसदी भूभाग पर तालिबान का कब्जा हो चुका था।

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इसके बाद तालिबान कट्टर होता गया, शरिया लागू कर दिया गया, ह्त्या के आरोपियों को सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाने लगी, चोरी करने पर हाथ पैर काटे जाने लगे, पुरुषों के लिए दाढ़ी रखना वही महिलाओं के लिए हिजाब पहनना जरुरी कर दिया गया। इतना ही नहीं बल्कि टीवी, गानों और सिनेमा पर पूर्ण रूप से पाबन्दी लगा दी गयी। लड़कियां स्कूल नहीं जा सकती थी।

तालिबान उस वक़्त पूरी दुनिया की नज़रों में आया जब उसने 11 सितम्बर 2001 को दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका पर हमला कर दिया और हज़ारों लोगों की जान ले ली। इसके बाद अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया और ओसामा को सौपने की बात कही लेकिन तालिबान ने ऐसा करने से साफ़ इंकार कर दिया और आखिरकार अमेरिका ने उसी साल अफगानिस्तान में अपनी सेनाएं उतार दी।

हालांकि यह अमेरिका के लिए आसान नहीं रहा और उसने लाखों करोड़ो डॉलर तो बर्बाद किये ही बल्कि दुनिया भर के मुस्लिमों की नज़रों में उसकी पहचान मुस्लिम विरोधी देश के रूप में हो गयी। साल 2011 में पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मारा लेकिन अफगानिस्तान से निकलने का उसका सपना सपना ही रहा लेकिन आखिरकार लगभग दो दशक बाद ही सही एक उम्मीद जागी है कि अब शांति आएगी।

भारत के लिए खतरे की घंटी –

अब इस पुरे घटनाक्रम को भारत के नजरिये से समझते है, अमेरिका अगर अफगान छोड़ देगा तो सीधी सी बात है कि तालिबान का वर्चस्व बढ़ेगा और इससे भारत की लिए कड़ी चुनौती पैदा हो सकती है, इस बात को शायद सरकार जानती थी इसलिए ही समय रहते कश्मीर से धारा 370 हटा दी गयी। इसको इस नजरिये से समझिये की तालिबान और आईएसआई के हमेशा मधुर संबंध रहे है और अब पाकिस्तान अपने आतंकी कैंपो को अफगान में शिफ्ट कर सकता है क्यूंकि आज भी अफगान के 70 फीसदी हिस्से पर तालिबान का कब्ज़ा है।

सुरक्षा से जुड़े लोगों का कहना है कि तालिबान कभी भी अफगान में शांति नहीं आने देगा और अमेरिका के निकलने से कट्टर इस्लामिक आंदोलन को बढ़ावा ही मिलेगा वही भारत की पहली चिंता अफगानिस्तान में चल रहे उसके प्रोजेक्ट्स को लेकर है। वही समझौते के बाद तालिबानी आतंकी भारत के कश्मीर और पंजाब जैसे राज्यों का रुख कर सकते है इसकी आशंका पिछले साल ही जता दी गयी थी जब ट्रंप ने शांति वार्ता शुरू की थी।

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इस समझौते का सबसे अधिक फायदा पाकिस्तान को होने वाला है, एक तो उसके तालिबान के साथ अच्छे संबंध वही FATF की नज़रों में आतंक पीड़ित देश होने का नाटक, चूंकि वो अपने सारे आतंकी भारत अफगान सीमा पर शिफ्ट कर देगा तो ये तो वही बात हो जायेगी की जंगल में मोर नाचा लेकिन देखा किसी ने नहीं ! ऐसा करके वो आसानी से दुनिया की आंखों में धूल झौंक देगा क्यूंकि तालिबान तो मसूद अज़हर का पक्षधर है तो ऐसे में अमेरिका के निकलने के बाद भारत पर कोई आतंकी हमला नहीं प्लान होगा इसके मायने कम है, जाहिर है होगा।

भारत की चिंता इस बात को लेकर भी है कि तालिबान ने समझौते के बाद पाकिस्तान का नाम लिया लेकिन भारत का नाम नहीं लिया, वही रूस और अमेरिका के तालिबान से बात करने के बावजूद हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कभी भी तालिबान से बात करने की कोशिश नहीं की क्यूंकि कांधार विमान अपहरण का दर्द आज भी हमारे सीने पर है। उस वक़्त अजित डोभाल ही थे जो तालिबान के इलाके में खड़े होकर उनसे डील कर रहे थे और उनके चारों और सिवाय मशीन गन और आतंकियों के कोई नहीं था।

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अंत में, तालिबान और आईएसआई इस देश के हित में कभी न थे और ना ही हो सकते है, कश्मीर से भले ही धारा 370 हटा दी गयी हो लेकिन खतरा आज भी बरकरार है।

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