मध्य प्रदेश के इंदौर में रेसीडेंसी कोठी का नाम बदलकर शिवाजी कोठी रखने के निर्णय ने सियासी सरगर्मियों को बढ़ा दिया है। इस फैसले को लेकर जहां महाराष्ट्र चुनाव के मद्देनजर भाजपा की रणनीति मानी जा रही है, वहीं धनगर समाज के विरोध से नया पेंच भी खड़ा हो गया है।
इंदौर और आसपास के क्षेत्रों में तीन लाख से अधिक मराठी भाषी परिवार रहते हैं। इनमें से कई परिवारों के खेत और पैतृक घर महाराष्ट्र में हैं, और कुछ लोग वहां के मतदाता भी हैं। इसके अलावा इंदौर के कई परिवारों के रिश्तेदार महाराष्ट्र में रहते हैं। इन संबंधों को भुनाने के लिए भाजपा ने रेसीडेंसी कोठी का नाम छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम पर करने का निर्णय लिया, जिससे महाराष्ट्र चुनाव में समर्थन मिलने की उम्मीद है।
धनगर समाज का विरोध
इस नाम परिवर्तन का धनगर समाज ने कड़ा विरोध किया है। समाज के युवाओं ने सोमवार को रेसीडेंसी कोठी पर प्रदर्शन करते हुए इसके नीचे “देवी अहिल्या कोठी” का बैनर लगा दिया।
प्रदर्शन में शामिल जतिन थोरात और रणजीत भांड ने कहा
“शिवाजी महाराज हमारे लिए देवता समान हैं, लेकिन देवी अहिल्या बाई ने देशभर में धर्मशालाएं और घाट बनवाए। इसलिए कोठी का नाम बदलना ही है तो उसे देवी अहिल्या के नाम पर किया जाना चाहिए।”
समाज का तर्क है कि देवी अहिल्या बाई होलकर की 300वीं जयंती वर्ष के अवसर पर कोठी का नाम उनके नाम पर होना चाहिए।
मराठी समाज पर भाजपा की नजर
भाजपा ने मराठी समाज में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कई कदम उठाए हैं।
स्वाति युवराज काशिद, जो जालना (महाराष्ट्र) से हैं और इंदौर में ब्याही गई हैं, को 17 अक्टूबर को अखिल भारतीय महिला मराठीभाषी महासंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
स्वाति ने जालना से इंदौर तक पैदल यात्रा निकालते हुए मराठी समाज में दखल बढ़ाया है और भाजपा से भी सक्रिय रूप से जुड़ी हैं। इस नियुक्ति को भी मराठी वोटरों को साधने का प्रयास माना जा रहा है।
चुनावी समीकरण
इंदौर और आसपास के मराठी भाषी मतदाताओं पर ध्यान देना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा है। चूंकि इंदौर संभाग की सीमा महाराष्ट्र से जुड़ी है और यहां के कई व्यापारी महाराष्ट्र से जुड़े हुए हैं, भाजपा को उम्मीद है कि यह नामकरण महाराष्ट्र चुनाव में राजनीतिक लाभ दिला सकता है।
रेसीडेंसी कोठी का नाम बदलकर शिवाजी कोठी करने का निर्णय जहां एक ओर मराठी समाज को भाजपा के पक्ष में खींचने की कोशिश है, वहीं धनगर समाज का विरोध इस फैसले में अड़चनें पैदा कर सकता है। यह नामकरण अब सिर्फ सांस्कृतिक नहीं, बल्कि राजनीतिक मुद्दा बन गया है, जिससे दोनों राज्यों के संबंधों और भाजपा की चुनावी रणनीति पर असर पड़ सकता है।