जितेंद्र शर्मा { एडिटर इन चीफ }
आज एक कोरोना वायरस के आगे पूरी दुनिया बेबस हो गयी है। प्रकृति दुनिया को आइना दिखा रही है।
अपनी इच्छाओं और भोग में डूबा मनुष्य किस कदर अपने आप को शक्तिशाली समझने लगता है कि उसे लगता है उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता लेकिन कुदरत की लाठी में आवाज़ नहीं होती है।
प्रकृति जब लोगों की हवा पानी देती है तो भेदभाव नहीं करती है। लेकिन स्वार्थी इंसान अपने भोगों की पूर्ति के लिए उसका दोहन करता रहा है। आज सब ठहर सा गया है, अपने आप को सब कुछ समझने वाला इंसान बेबस है।
कुदरत समय समय पर इंसान को आगाह करती है लेकिन मनुष्य उसे हर बार लहुलुहान करता जा रहा है।
हमने नदियों, तालाबों और कब्रिस्तान तक नहीं छोड़े है। चारो तरफ गन्दगी, अशुद्धि और कुदरत के तत्वों के साथ छेड़छाड़ की गयी है।
आज वातावरण की शुद्धि के लिए कुदरत मजबूर हुई है और इंसान का घमंड उसे तोड़ दिया है। यह कोरोना बीमारी एक न्याय है उस प्रकृति का जिससे बहुत कुछ सहा है।
ये कुदरत का साफ़ सन्देश है की उसके साथ खिलवाड़ करोगे तो भुगतना ही होगा।
आज जो लॉकडाउन लोगों के लिए अभिशाप बना वही लॉकडाउन कुदरत के लिए वरदान बन गया है। प्रदुषण नहीं है, नदियां साफ़ हो रही है, पक्षी और जानवर खुले घूम रहे है।
बर्फ के पहाड़ दिखने लगे है और जानवर खुली हवा में सांस ले पा रहे है।
वो करोड़ों फैक्ट्री जिन्होंने नदियों के पानी को मैला कर ना जाने कितने जीवों की ह्त्या की वो बंद पड़ी है।
वो मानव जो हर बार किसी व्रत त्यौहार के नाम पर नदियों को मैली कर देता था वो आज घरों में बंद पड़ा है। आज दिखाई ऐसा दे रहा है कि कुदरत को जख्म देने वाला अब खुद ही बेबस है।
इस धरती माँ का सीना कुछ पैसे के लिए छलनी कर दिया जाता रहा, नदियों के पानी को भी नहीं छोड़ा जा रहा है ,जीव जंतुओं को मार दिया जाता है।
पहाड़ों और जंगलों को काटकर अपने आराम के लिए घर बनाये जा रहे है। पक्षी इस जहरीली हवा में घुट घुट कर मर रहे है। अब पक्षियों की आवाज़ नहीं सुनाई देती है।
ये कुदरत आपको बता रही है कि दूसरों को जख्म देना कितना आसान है लेकिन जब वही जख्म कर्म के सिद्धांत से पलटकर आता है तो पता चलता है की कितना भारी पड़ता है।
आज पूरी सभ्यता को एक बीमारी ने कैद कर दिया है।
हर बार भूकंप, सुनामी और बाढ़ के रूप में कुदरत संकेत देती है लेकिन थोड़ी चर्चा करने के बाद इंसान फिर उसी ढर्रे पर चलने लगता है।
वो आपदाओं से कोई सबक नहीं सीखता है लेकिन इस बार सबक महंगा पड़ा है।
हमारे पुराणों में तो ईश्वर के अवतार जानवरों पर है। हनुमान जी बंदर है, नरसिंह शेर है। शिव के गले में सर्प है, कार्तिकेय का वाहन मोर है। इंद्र हाथी पर बैठते है।
विष्णु सांप पर सोते है। आपको पता है ऐसा क्यों है ? ताकि इंसान और कुदरत का संतुलन बने रहे।
हम सांप को पूजते है लेकिन जिस जंगल में वो सांप रहता है उसी जंगल में आपने आग लगा दी है। आप हनुमान जी को पूज रहे है लेकिन बंदरों को उनके जंगलों से बेदखल कर रहे है।
आपने जंगलों को भी नहीं छोड़ा है। और जब जानवर का खाना खत्म हो जाएगा एक व्यवस्था खत्म कर दी जायेगी तो वो जानवर क्या करेंगे ?
जाहिर सी बात है कि इंसान को दखल नहीं देना था लेकिन हमने दिया, जब जानवर आबादी वाले इलाकों में आएगा तो नरभक्षी ही बन जाएगा।
जब आप चूहे, बंदर, बिल्ली को खाने लगेंगे तो आपको क्या लगता है कि कुदरत का हिसाब नहीं होगा ?
कुदरत हिसाब लेती है और चुन चुन कर लेती है। वो आपको उस हद तक तोड़ती है जब आपको ये समझ आता है कि गलती बड़ी है। अब भी समय है की हम जाग जाए।
कुदरत के मसलों में दखल ना दे। नदियों को बहने दे, जानवरों और पक्षियों को जीने दे। मांस खाना छोड़ दे। कुदरत के नियमों का पालन करिये।
आज समय है कुदरत से मांफी मांगने का, उसके नियमों का पालन करने का ताकि भविष्य में कोई बड़ा नुकसान नहीं हो।
और उसके बाद भी अगर आपने अपनी हद में रहना नहीं सीखा तो कुदरत आगे भी आपको सबक सीखा सकती है।
आज समय है जब इंसान अहंकारी स्वभाव को छोड़ दे, जिस कुदरत के पंच तत्वों से मिलकर आपका शरीर बना है उस पर मत घमंड कीजिये।
जो कुदरत आपको बना सकती है वो आपको मिटा भी सकती है। कुदरत जब अपने आप को शुद्ध करने पर आती है तो किसी की मोहताज नहीं है, उसके अपने तौर तरीके होते है।