जैसा की हम सब जानते है कि महाराज परीक्षित उत्तरा और अभिमन्यु के पुत्र थे। उनका विवाह मद्रावती से हुआ जिससे उन्हें 7 संतानों की प्राप्ति हुई ऐसा महाभारत में वर्णित है। कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन और जनमेजय। इनमें से जनमेजय ने ही सर्प यज्ञ किया था। जिसमे कर्कोटक और तक्षक बचे थे और बाकी नागों को आस्तिक ने बचाया था जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
आज इस लेख में मैं आपको बताने वाला हूं कि एक सर्पिणी के गर्भ से पैदा हुए सोमश्रवा को जनमेजय को अपना पुरोहित क्यों बनाना पड़ा ? दरअसल आदि पर्व में वर्णित एक कथा के अनुसार एक बार वो श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन के साथ कुरुक्षेत्र में यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे।
अब उसी समय देवताओं की कुतिया सरमा का पुत्र सारमेय घूमते घूमते वहां जा पहुंचा। जनमेजय के भाईयों ने बिना किसी कारण उस कुत्ते को पीटा। इसके बाद रोता हुआ वो अपनी मां के पास गया। जब सरमा ने अपने पुत्र की ये हालत देखी तो उसे तो बड़ा क्रोध आया। उसने अपने पुत्र से पूछा की कैसे ये हाल हुआ ?
तब सारमेय ने कहा कि मुझे जनमेजय के भाइयों ने मारा है। सरमा ने पुत्र से कहा कि बेटा तुमने की कुछ ना कुछ अपराध किया होगा ! पुत्र ने जवाब दिया कि नहीं मां, मैनें कोई अपराध नहीं किया है। हविष्य की ओर देखा भी नहीं और ना ही उसको खाया है। ऐसा सुनकर सरमा अपने पुत्र को लेकर उसी स्थान पर पहुंची।
क्रोध में भरी हुई सरमा ने जनमेजय और उसके भाइयों से पूछा, बताओ तुमने मेरे बेटे को क्यों मारा ? लेकिन उनके पास कोई जवाब ही नहीं था। तब सरमा ने उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारे ऊपर अचानक से ऐसा संकट आएगा जिसकी तुम्हे भनक भी नहीं लग पाएगी। सरमा के जाने के बाद जनमेजय को भय हुआ।
इसके तुरंत बाद वो हस्तिनापुर आये और विचार करने लगे की कोई ऐसा योग्य पुरोहित मिल जाए जो उस पाप कृत्य श्राप से मुझे मुक्त कर दे। एक दिन ऐसे ही शिकार करते करते जनमेजय एक आश्रम में पहुंचे जो की श्रुतश्रवा ऋषि का था। उनके पुत्र थे सोमश्रवा जो की एक सर्पिणी के गर्भ से पैदा हुए थे।
जनमेजय ने जब उन्हें देखा तो उन्हें वो योग्य लगे और उसी समय उन्होंने श्रुतश्रवा से उनके पुत्र को पुरोहित के रूप में मांग लिया। सोमश्रवा बड़े तपस्वी थे। सोमश्रवा की ये ताकत थी की वो किसी भी श्राप से होने वाले उपद्रव को नष्ट कर सकते थे सिवाय शिव के। लेकिन उनके पुरोहित बनने की भी एक शर्त थी।
दरअसल सोमश्रवा का ऐसा नियम था कि अगर कोई भी ब्राह्मण उनके पास आता और कुछ भी मांगता था तो वो उसे दे देते थे। दूसरी बात ये कि वो जिसके भी पुरोहित बनते थे उसे उनकी अक्षरत: माननी होती थी।
उनके पिता के द्वारा कहे गए इन वचनों को सुनकर जनमेजय ने उन्हें आश्वासन दिया की ऐसा ही होगा। इसके बाद वो सोमश्रवा को लेकर आ गए और उनके भाइयों को ऋषि के बारे में सब कुछ समझाकर तक्षशिला को जीतने निकल पड़े और उस प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया।