नई दिल्ली : दुनियाभर में ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से मशहूर भारत के महान धावक मिल्खा सिंह का कल देर रात निधन हो गया। वे 91 वर्ष के थे। आपको बता दें कि पिछले कुछ समयों से मिल्खा लगातार स्वास्थ समस्याओं से जूझ रहे थे। इस कारण उन्हें चंडीगढ़ के PGI अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वे कोरोना संक्रमित थे। जहां गुरूवार को उनकी रिपोर्ट तो नेगेटिव आ गई थी, मगर मगर पोस्ट कोविड के दिक्कतों की वजह से वे PGI अस्पताल में दोबारा भर्ती हुए थे जहां उनका निधन हो गया।
बता दें कि मिल्खा सिंह भारत के खेल इतिहास के सबसे सफल एथलीट थे। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से लेकर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान तक सब मिल्खा के हुनर के मुरीद थे।
मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवम्बर 1929 गोविंदपुरा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा हैं) में एक सिख परिवार में हुआ था। उनका बचपन बेहद कठिन दौर से गुजरा। उनके कुल 12 भाई-बहन थे, लेकिन उनका परिवार भारत-पाक विभाजन की त्रासदी का शिकार हो गया, उस दौरान उनके माता-पिता के साथ आठ भाई-बहन भी मारे गए। परिवार के केवल चार लोग ही जिंदा बचे थे जिनमें से एक आगे चलकर विश्व के महान धावकों में से एक बने।
ऐसे मिला ‘फ्लाइंग सिख’ का खिताब
मिल्खा सिंह को मिले ‘फ्लाइंग सिख’ के खिताब की कहानी बेहद दिलचस्प है और इसका संबंध पाकिस्तान से जुड़ा हुआ है। 1960 के रोम ओलिंपिक में पदक से चूकने का मिल्खा सिंह के मन में खासा मलाल था। इसी साल उन्हें पाकिस्तान में आयोजित इंटरनेशनल एथलीट कम्पटिशन में हिस्सा लेने का न्योता मिला। मिल्खा के मन में लंबे समय से बंटवारे का दर्द था और वहां से जुड़ी यादों के चलते वो पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे। हालांकि बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समझाने पर उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला किया।
पाकिस्तान में उस समय एथलेटिक्स में अब्दुल खालिक का नाम बेहद मशहूर था। उन्हें वहां का सबसे तेज धावक माना जाता था। यहां मिल्खा सिंह का मुकाबला उन्हीं से था। अब्दुल खालिक के साथ हुई इस दौड़ में हालात मिल्खा के खिलाफ थे और पूरा स्टेडियम अपने हीरो का जोश बढ़ा रहा था लेकिन मिल्खा की रफ्तार के सामने खालिक टिक नहीं पाए। रेस के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने मिल्खा सिंह को ‘फ्लाइंग सिख’ का नाम दिया और कहा ‘आज तुम दौड़े नहीं उड़े हो। इसलिए हम तुम्हें फ्लाइंग सिख का खिताब देते हैं।’ इसके बाद से ही वो इस नाम से दुनिया भर में मशहूर हो गए। खेलों में उनके अतुल्य योगदान के लिये भारत सरकार ने उन्हें भारत के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से भी सम्मानित किया है।
1951 में हुए सेना में भर्ती
भारत आने के बाद मिल्खा सिंह का पूरा जोर देश की आर्मी में भर्ती होना था और साल 1951 में वे भारतीय सेना में शामिल हो गए। भारतीय सेना में शामिल होना ही वो टर्निंग पॉइंट था जहां से एक महान खिलाड़ी का उदय हुआ। इसी दौरान उन्हें खेलों में भाग लेने का मौका मिला था। एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह बताते हैं कि आर्मी ज्वाइन करने के 15 ही दिन बाद एक दौड़ का आयोजन किया गया था। जिससे एथलेटिक्स ट्रेनिंग के लिए दस जवान चुने जाने थे। जब मैंने रेस शुरू की तो मेरे पेट में दर्द होने लगा, जिसके कारण मुझे रुकना पड़ा, इसके बाद मैंने फिर अपनी दौड़ शुरू कर दी। आधा मील चला ही होऊंगा कि फिर दर्द होने लगा। रुकता, फिर चलने लगता, फिर रुकता, फिर चलता. इस तरह वो दोड़ पूरी की, फिर भी मैं उन करीब पांच सौ लोगों में से छठवें स्थान पर आने में कामयाब हुआ। इस तरह भारतीय सेना में स्पोर्ट्स के लिए उनका दरवाजा खुला। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है।
साल 1958 में वे देश के पहले इंडिविजुअल एथलेटिक्स बने थे जिन्होंने कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मेडल जीता था। साल 2010 तक ये सम्मान पाने वाले वे अकेले भारतीय थे। साल 1958 में आयोजित हुए एशियन खेलों में भी वे गोल्ड मेडल जीते थे। इसी दौरान सरकार ने खेलों में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्म श्री अवार्ड से सम्मानित किया। मिल्खा सिंह ने लगातार तीन ओलंपिक खेलों में देश का नेतृत्व किया था। ये तीन ओलंपिक थे साल 1956 में मेलबर्न में आयोजित हुआ समर ओलंपिक, फिर साल 1960 में रोम में आयोजित हुआ समर ओलंपिक और साल 1964 में टोक्यो में आयोजित हुआ समर ओलंपिक।
मिल्खा पर एथलीट बनने का जुनून इस कदर हावी हो गया था कि वो अभ्यास के लिए चलती ट्रेन के साथ दौड़ लगाते थे। इस दौरान कई बार उनका खून भी बह जाता था और सांस भी नहीं ली जाती थी, लेकिन फिर भी वो दिन-रात लगातार अभ्यास करते रहते थे।
देश की सेना में भर्ती होने के चार साल बाद ही यानी 1956 में वे पटियाला में हुए नेशनल गेम्स जीते थे। जिससे उन्हें ओलंपिक के लिए ट्रायल देने का मौका मिला। लेकिन ओलंपिक के लिए ट्रायल देने से पहले ही उन्हें एक भयंकर और दर्दनाक अनुभव से गुजरना पड़ा था।
मिल्खा सिंह के जो प्रतिद्वंदी थे वे नहीं चाहते थे कि मिल्खा सिंह उस रेस में भाग लें। इसलिए एक दिन पहले ही उनके प्रतिद्वंदियों ने उन पर हमला बोल दिया। उनके सर और पैरों को नुकसान पहुँचाने की कोशिश की गई। अगली सुबह उनके शरीर पर जगह-जगह निशान थे और बुखार भी आया हुआ था। वे डॉक्टर के पास पहुंचे तो डॉक्टर ने कहा कि वे रनिंग में भाग न लें। लेकिन मिल्खा सिंह ठहरे अडिग और जिद्दी, उन्होंने दवा की एक गोली लेकर ट्रायल में भाग लिया और जीते भी। इस प्रकार ओलंपिक जाने का उनका रास्ता खुला। 1960 के रोम ओलंपिक में वे पदक लाने से बहुत पास से चूक गए थे, वे रोम ओलंपिक में 400 मीटर की दौड़ में चौथे नंबर पर आए थे।
आपको बता दें कि अपने इस मुकाम को पाने में मिल्खा सिंह का संघर्ष भी बड़ा ही कठोर रहा है, अपने आप को मजबूत करने के लिए वे यमुना नदी के किनारों पर रेत में दौड़ते थे, पहाड़ी एरिया में भी दौड़ते थे, इतना ही नहीं रेलवे ट्रैक पर भी दौड़ते थे।
उन्होंने अपनी ऑटोबायोग्राफी भी लिखी है जिसका नाम है ‘रेस ऑफ माय लाइफ’, उनकी बेटी सोनिया संवाल्का (Sonia Sanwalka) इस ऑटोबायोग्राफी की सह लेखिका हैं। इसी किताब के आधार पर साल 2013 में एक हिंदी फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ भी बनी थी, जिसमें मिल्खा सिंह का रोल अभिनेता फरहान अख्तर ने निभाया है।