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इस संसार में सुखी कौन ? जो स्वयं की और गति करे, दूसरों को देखने वाला दुःखी ही रहेगा

By RNI Hindi Desk 
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इस मृत्यु लोक में सुख और दुःख जीवन के अहम हिस्से है और हर प्राणी को इन्हें भोगना होता है। जब श्री हरि विष्णु ने अवतार लिए तो भी उन्हें इन चीजों से गुजरना पड़ा। जब उन्होंने राम का अवतार लिया तो राज्य अभिषेक के सिर्फ एक दिन पहले उन्हें 14 वर्ष का वनवास दे दिया गया और वहां भी उनकी पत्नी खो गई।

माता सीता को पाने के लिए उन्होंने दिन रात एक कर दिए तब जाकर रावण का वध हुआ और माता सीता उन्हें मिली। दूसरी और कृष्ण अवतार में उनका तो जन्म ही कारागार में हुआ। जिस माँ ने उन्हें पैदा किया उसका सुख भी नहीं मिला और गांधारी के श्राप के कारण पूरा वंश का विनाश उन्हें देखना पड़ा।

दरअसल सुख और दुःख जीवन के ऐसे पहिये है जिनसे कोई बच नहीं सकता उसके बाद भी कोई स्वयं को सुखी क्यों नहीं कहता ? सब लोग आपसे यही कहते है की मैं दुःखी हूँ ! सुखी कोई नहीं है ! इसका कारण ढूढ़ने जाएंगे तो कहीं अधिक दूर नहीं जाना होगा।

इस प्रश्न का उत्तर स्वयं इंसान के मन में है। दरअसल हम देवताओं की  उपासना तो करते है लेकिन उपासना का अर्थ नहीं जानते। उपासना का अर्थ है स्वयं की और गति करना और जो व्यक्ति स्वयं की और गति नहीं करता वो जीवन में सुखी नहीं हो सकता।

कलियुग की सबसे बड़ी ताकत आपको पता है क्या है ? वो ये की इंसान खुद के सिवाय बाकी सब देखता है। एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा की सुखी कौन है ? गुरु ने कहा, जाओ खुद पता कर लो भाई !

वो भटक रहा है, कभी उसे लगता की ये व्यक्ति इतनी बड़ी दुकान लेकर बैठा है तो सुखी होगा लेकिन पता चला की उसकी पत्नी रूपवान नहीं है तो दुःखी है ! इसके बाद उसे एक ऐसा व्यक्ति मिला जिसकी पत्नी बड़ी सुंदर और हष्ट पुष्ट पत्नी थी तो सोचा ये सुखी होगा लेकिन पता चला की वो दुःखी है ! पूछने पर जवाब दिया की मैं तो नौकरी करता हूँ, काश मेरी बड़ी दुकान होती !

दोनों नेगेटिव ही सोच रहे है और ऐसा करते करते रात हो गई और वो शिष्य पुरे गांव में भटक लिया लेकिन उसे कोई सुखी नहीं मिला। थक हारकर वो लौट आया और चरणों में प्रणाम करके बोला की हे गुरुदेव् अब आप ही बताए !

गुरु ने कहा, जीवन में इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी उसका मन है और वो उसे बाहर की और देखने के लिए प्रेरित करता है। एक के पास दुकान है लेकिन उसको बीवी दिखाई दे रही है और एक की बीवी स्वथ्य है लेकिन उसे दुकान दिखाई दे रही है। दोनों सिर्फ वो देख रहे है जो और के पास है लेकिन खुद के पास जो है उसकी कद्र नहीं है।

यही कारण है की जिससे भी पूछो वो यही कहता है की मैं दुःखी हूँ क्यूंकि वो अपनी और नहीं देख रहा है। जो खुद पर कम और दूसरों पर अधिक ध्यान देता है वो सदैव दुःखी ही रहता है। संसार का चक्र बड़ा है और भोग की संख्या भी।

जीवन में इतने भोग है की करते करते उम्र निकल जाए लेकिन इन भोगों के पीछे भागने वाला ठीक उसी प्रकार दुःखी होता है जैसे कस्तूरी मृग अपने अज्ञान के कारण दुःखी होता है। जीवन में किसी से होड़ करनी है तो खुद से करो ! ईश्वर का अहसास करना है तो खुद की और देखो दूसरों की और नहीं।

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