हिंदू धर्म के 12 माह में फाल्गुन माह का बड़ा महत्त्व कहा गया है, इस माह में हिंदुओं के 2 बड़े प्रमुख त्यौहार शिवरात्रि और होली आते है। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होली का उत्सव मनाया जाता है वही अगले दिन धुलंडी मनाई जाती है जो की रंगों का त्यौहार है।
पूर्णिमा के दिन होलिका दहन एक ऐसी परम्परा है जिसका निर्वाह बड़े ही धूमधाम से किया जाता है और सब लोग होलिका दहन करते है लेकिन क्या आप जानते है होलिका कौन थी ? पूर्णिमा के दिन होलिका क्यों जलाई जाती है ? आज हम आपको इससे जुड़ा एक रहस्य बताते है।
पुराणों में लिखा गया है कि सतयुग में हिरण्यकश्यप नाम का असुर था, वह नास्तिक था और भगवान विष्णु को अपना शत्रु मानता था। लेकिन उनका जो पुत्र प्रह्लाद था उसकी भगवान विष्णु में गहरी आस्था थी और यह उनके पिता को बिल्कुल पसंद नहीं था और बार बार समझाने के बाद भी जब भक्त प्रह्लाद नहीं माने तो वह उसे मारने की कोशिश करने लगे।
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असुर ने बहुत कोशिश की लेकिन वो उसे नहीं मार पाये, आखिरकार उन्होंने अपनी बहन होलिका की मदद लेने की ठानी, होलिका को वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी जिसे ओढ़ने पर उसे अग्नि का भय नहीं रहता था। असुर हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को राज़ी किया वो प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ जाए जिससे वो मर जाए।
भक्त प्रह्लाद के तो रोम रोम में विष्णु बसे थे, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उसके पिता उसे मारने की ना जाने कितनी बार नाकाम कोशिश कर चुके थे। एक बार फिर प्रह्लाद परीक्षा देने को तैयार थे। फाल्गुन माह की अष्टमी को हिरणकश्यप ने प्रह्लाद की कैद किया और उसे बहुत प्रताड़ना दी और पूर्णिमा के दिन उन्होंने विशाल मैदान पर अग्नि प्रज्वलित कर होलिका को वहां बैठने के लिये राज़ी किया।
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नियत समय पर होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गयी, उसे लगा कि वो बच जायेगी लेकिन भगवान् को भक्तवत्सल ऐसे ही नहीं कहा जाता, उस दिन एक ऐसा चमत्कार हुआ जो पुरे ब्रह्माण्ड ने देखा, वरदान मिले होने के बाद भी होलिका जल गयी और भक्त प्रह्लाद बच गए।
तबसे ही फाल्गुन माह की पूर्णिमा को प्रदोष काल में होलिका दहन करने की रीति चली जा रही है और जब भी हम होलिका दहन करने है तो अपने मन के दोष को उस अग्नि में नष्ट करके भक्त वत्सल भगवान् विष्णु के प्रति भक्ति अगाढ़ हो ऐसी कामना करते है।