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आजमगढ़ से करहल क्यों वापस आ गए अखिलेश..!

डॉ. दिनेश शर्मा के बहाने बदलेगा कई विधायकों का ठिकाना। रीता बहुगुणा के प्रस्ताव में कहीं अपर्णा न बन जाएं बहाना। किसके इशारे पर सपा-रालोद पर लगाया भड़ाना ने निशाना।

By RNI Hindi Desk 
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प्रभात रंजन दीन की कलम से

राजनीति और नाटक में कोई फर्क नहीं होता। इन दोनों विधाओं में नेपथ्य जरूर होता है। नेपथ्य से राजनीति और नाटक दोनों संचालित होते हैं। भीतर कुछ और बात होती है, और मंच पर कुछ और दिखता है। अभी उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए यह राजनीतिक प्रहसनों के मंचन का मौसम है। कुछ चेहरे मंच पर आ रहे हैं, कुछ चेहरे मंच से जा रहे हैं और कुछ चेहरे मंच के नेपथ्य से अपना रोल अदा कर रहे हैं। आप इसे घुमा कर कहें… कुछ चेहरे मंच के नेपथ्य से अपना रोल अदा कर रहे हैं और उसी मुताबिक कुछ चेहरे मंच पर आ रहे हैं और कुछ चेहरे मंच से जा रहे हैं।

जो सत्ता में थे वे चार साल सत्ता-सुख भोग रहे थे और जो सत्ता से बाहर थे वे चार साल विश्राम कर रहे थे। इस अवधि में राजनीतिक-अभिनेताओं का दर्शकों-श्रोताओं से कोई लेनादेना नहीं रहता। चुनावी वर्ष में सारे राजनीतिक-अभिनेता संजीदगी और जन-सरोकार का मेकअप लगाए मंच पर आने जाने लगते हैं। चुनाव होने तक प्रहसन चलता है और उसके बाद सत्तापक्ष के भोग और विपक्ष के विश्राम का चार-वर्षीय सत्र फिर से शुरू हो जाता है। भारतीय लोकतंत्र का यही यथार्थ है।

भाजपा के स्वामी प्रसाद मौर्य सपा में आए… मुलायम की बहू अपर्णा यादव भाजपा में गईं… ये नाम कुछ उन नामों के साथ शुमार हैं, जो इधर से उधर गए और उधर से इधर आए। लेकिन इस आने और जाने की अंतरकथा नेपथ्य में लिख दी गई थी और मोहरों को मंच पर उतारने के लिए तैयार रखा गया था। सियासत में सब मिले हुए हैं। अखिलेश यादव गोरखपुर से चुनाव नहीं लड़ेंगे।

योगी आदित्यनाथ मैनपुरी से चुनाव नहीं लड़ेंगे। कोई एक दूसरे के गढ़ में नहीं उतरेगा। कोई अगरधत्त एक दूसरे के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेगा। मंच पर विरोध के शब्द आग की तरह उगलेगा, लेकिन एक दूसरे के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेगा। यह भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक-प्रहसन की परम्परा है।

अखिलेश का आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का मन अचानक क्यों बदल गया? एक समानान्तर सवाल इस सवाल के साथ चलता है कि योगी को अयोध्या से न लड़ा कर गोरखपुर से क्यों उतारा गया? यह सवाल पहले वाले सवाल का उत्तर भी है। योगी का गोरखपुर से चुनाव लड़ना गोरखपुर, आजमगढ़ और बस्ती मंडल की सीटों के लिए खास महत्वपूर्ण है। गोरखपुर से सटे बस्ती, आजमगढ़ और देवीपाटन मंडलों में योगी की गोरक्षपीठ का हमेशा से मान रहा है… योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद इन मंडलों में गोरक्षपीठ का राजनीतिक प्रभाव भी काफी बढ़ा है।

यह माना जाता है कि गोरखपुर के अगल-बगल के सात जिलों की 60 से अधिक सीटों पर योगी आदित्यनाथ की इतनी पकड़ बन चुकी है कि अन्य पार्टियों को मुश्किलों भरा संघर्ष करना होगा। वर्ष 2017 के चुनाव में भाजपा ने इस क्षेत्र की 44 सीटें जीती थीं। गोरक्ष क्षेत्र यानी गोरखपुर क्षेत्र के 10 जिलों में कुल 62 सीटें हैं। इनमें 44 सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ने 2017 में जीत हासिल की थी। गोरखपुर से 70 किलोमीटर दूर बस्ती मंडल के तीन जिलों की 13 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की थी। योगी के प्रभाव असर यह था कि बस्ती डिवीजन के किसी भी जिले में विपक्ष का खाता तक नहीं खुल पाया था। जानकारियां इकट्ठा करिए तब पता चलेगा कि गोरक्षपीठ और योगी आदित्यनाथ का पूर्वांचल के कुशीनगर, देवरिया, संत कबीर नगर, महाराजगंज, गोरखपुर, बस्ती, कुशीनगर, आजमगढ़ और मऊ में कितना असरकारक प्रभाव है।

यहां की तमाम सीटों पर योगी खुद चुनाव लड़वाते रहे हैं। खास तौर पर आजमगढ़ को योगी ने अपना लक्ष्य-क्षेत्र बना कर उस पर अपना प्रभाव बनाया। आजमगढ़ की पहचान आतंकवाद की शरणस्थली के रूप में होने लगी थी। योगी ने इस कॉन्सेप्ट को बदला। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को आजमगढ़ की सभा में यह कहना पड़ा कि योगी ने आजमगढ़ की पहचान बदल दी। आजमगढ़ दुनियाभर में रैडिकल-सेंटर और आतंकवाद की पनाहगाह के रूप में बदनाम हो चुका था। योगी ने आजमगढ़ के लोगों की मदद से आजमगढ़ की इस छवि को बदला। योगी ने आजमगढ़ में महाराजा सुहेलदेव विश्वविद्यालय की स्थापना की शुरुआत कराई और आतंक की शिक्षा को खदेड़ कर संस्कार की शिक्षा का रास्ता प्रशस्त किया।

तो नेपथ्य ने अखिलेश को आजमगढ़ से चुनाव नहीं लड़ने की सलाह दी। जो अखिलेश पूर्वांचल पूर्वांचल की रट लगाए थे, वे अचानक करहल करहल करने लगे। इसके पीछे कोई न कोई ऐसी सूचना या निर्देश तो रहा ही होगा। तभी समाजवादी पार्टी के स्वयंभू राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को मैनपरी के करहल विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का ऐलान करना पड़ा। अब अखिलेश आजमगढ़ के गोपालपुर विधानसभा सीट से चुनाव नहीं लड़ेंगे। आजमगढ़ के लोगों से अनुमति लेने के नाम पर अखिलेश आजमगढ़ से जमीनी सूचनाएं मंगवाने का टाइम ले रहे थे। जब सूचना मिल गई, तब निर्णय बदल गया। करहल विधानसभा सीट अखिलेश यादव के लिए सुरक्षित सीट है। यादव बहुल करहल वर्ष 2007 से लगातार समाजवादी पार्टी को ही जितवा रहा है। 2017 के चुनाव में सपा उम्मीदवार सोबरन सिंह यादव ने भाजपा के राम शाक्य को हराया था। मंच पर डायलॉग यही चल रहा है कि करहल के सपा विधायक सोबरन सिंह यादव और एमएलसी अरविंद प्रताप सिंह गुरुवार सुबह लखनऊ पहुंचे और अखिलेश यादव से अनुरोध किया कि वह करहल विधानसभा से चुनाव लड़ें… आजमगढ़ के सांसद अखिलेश यादव फौरन मान गए… और आजमगढ़ प्रकरण का पटाक्षेप कर दिया।

अब आते हैं डॉ. दिनेश शर्मा पर

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दोनों उप मुख्यमंत्रियों केशव प्रसाद मौर्य और डॉ. दिनेश शर्मा विधानसभा चुनाव लड़ेंगे, यह घोषणा हुई थी। तमाम कयासों का पर्दा गिराते हुए भाजपा आलाकमान ने योगी के गोरखपुर से और मौर्य के सिराथू से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। लेकिन डॉ. शर्मा पर बात रह गई। अभी नेपथ्य यह तय नहीं कर पाया है कि डॉ. शर्मा के लिए पक्की सीट कौन सी हो। डॉ. शर्मा को फिट करने के लिए लखनऊ की कुछ विधानसभा सीटों पर चेहरे इधर-उधर किए जा सकते हैं। लखनऊ की दावेदारी में एक चेहरा और शामिल हो गया है, वह है मुलायम की बहू अपर्णा यादव का। अपर्णा पिछली बार लखनऊ कैंट से चुनाव लड़ चुकी हैं, जहां से रीता बहुगुणा जोशी चुनाव जीती थीं। इस बार रीता बहुगुणा ने अपने बेटे के लिए अपनी सीट छोड़ने का प्रस्ताव दिया है। नेपथ्य में यह पेंच फंसा है। लखनऊ में लखनऊ पूर्व से आशुतोष टंडन, लखनऊ मध्य से ब्रजेश पाठक, लखनऊ उत्तर से नीरज बोरा और लखनऊ कैंट से सुरेश तिवारी के अलावा शहरी और ग्रामीण लखनऊ की नौ सीटों में से भाजपा के आठ विधायक हैं। एक मोहनलालगंज विधानसभा सीट सपा के खाते में है। कवायद यही चल रही है कि लखनऊ की किसी सीट पर डॉ. दिनेश शर्मा को फिट किया जाए और किसी को अन्यत्र शिफ्ट किया जाए। संभावना है कि ब्रजेश पाठक को उनके पुराने क्षेत्र उन्नाव शिफ्ट कर डॉ. दिनेश शर्मा को लखनऊ मध्य से लड़वाया जाए। लेकिन यह तय होना अभी बाकी है। यह तो बात हुई डॉ. दिनेश शर्मा की। रीता बहुगुणा जोशी का दावा और प्रस्ताव, अपर्णा के लखनऊ कैंट से चुनाव लड़ने में बाधा है, भाजपा नेतृत्व राजनीतिक-नाटक के नए पात्र के लिए बाधा कैसे दूर करता है, इस पर निगाह रखनी है।

भड़ाना का निशाना

चलते चलते गौतमबुद्ध नगर से सपा-रालोद प्रत्याशी अवतार सिंह भड़ाना के चुनाव लड़ने से इन्कार करने की मंचीय घोषणा भी देखते चलें। अवतार सिंह भड़ाना ने गौतमबुद्ध नगर की जेवर विधानसभा सीट से नामांकन दाखिल करने के तीन दिन बाद चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की। उनकी जगह अब इंद्रवीर सिंह भाटी सपा-रालोद के प्रत्याशी होंगे। मंचीय तौर पर अवतार सिंह भड़ाना ने कोविड संक्रमित होने के चलते नाम वापस लेने का संवाद पेश किया है। लेकिन नेपथ्य में कुछ और ही हुआ है। भड़ाना का हट जाना सपा-रालोद के लिए बड़ा नुकसानदेह साबित होने वाला है, ऐसा जानकारों का कहना है। आप एक बार फिर से यह जानकारी अद्यतन करते चलें कि चार बार के सांसद अवतार सिंह भड़ाना अभी मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भड़ाना भाजपा के टिकट पर ही विधायक चुने गए थे। किसान आंदोलन के दौरान भड़ाना ने भाजपा से इस्तीफा दे दिया था। अब तो कृषि कानून भी वापस हो चुका है तो भड़ाना ने सपा-रालोद से अपनी नामदारी वापस लेकर कौन सा गलत कर दिया..! नेपथ्य से ऐसी ही ध्वनि आ रही है।

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