आज के समय में कुछ युवाओं की शिकायत रहती है की अमुक व्यक्ति से उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ या अमुक व्यक्ति ने उन्हें ज्ञान देने की चेष्टा नहीं की लेकिन वो इस बात को भूल जाते है की क्या वो उस ज्ञान को पाने के लायक थे ? महाभारत का एक प्रसंग हमे ऐसी ही सीख देता है।
आपको बता दे कि वेद व्यास के पुत्र शुकदेव जी भागवत पुराण के मूल वक्ता है। जब वो विवाह नहीं करना चाह रहे थे तो उनके पिता ने उन्हें राजा जनक के पास भेजा। पुरे संसार में उनसे सिद्ध कोई गृहस्थ नहीं था।
राजा जनक बहुत विद्वान थे। उस समय जनक का वैवाहिक जीवन आदर्श था। गृहस्थ होने के बाद भी वे वैरागी स्वभाव के थे। इसलिए शुकदेव जी भी उनसे मिलने को लेकर उत्साहित थे। मार्ग में वो यही सोच रहे थे की इतने बड़े विद्वान से कैसे मिलना होगा और क्या बात करनी है ?
बाद में जब वो महल के पास पहुंचे वो द्वारपाल ने रोक दिया और बोला की जनक से मिलने से पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा। अगर आप योग्य हुए तो ही आप उनसे मिल सकते है वरना आपको मिलने नहीं दिया जाएगा।
इसके बाद उन्होंने शुकदेव से पूछा कि बताइए सुख और दुख क्या हैं ?शुकदेव जी बोले की ये बस एक सिक्के के दो पहलु है। देखने का नजरिया ही तय करेगा की इंसान क्या देखना चाह रहा है!
इसके बाद उन्होंने पूछा, मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु और सबसे बड़ा मित्र कौन है?, शुकदेव जी बोले की इंसान खुद ही खुद का सबसे बड़ा मित्र और शत्रु है। द्वारपाल ने कहा, ‘आप विद्वान हैं। आपके उत्तरों में तर्क है। आप राजा जनक से मिल सकते हैं। इससे यह सीखने को मिलता है की सबसे पहले खुद को ज्ञानी से मिलने योग्य बनाए।