उत्तराखंड के पहाड़ों में लोग प्रकृति का आनंद उठाने आते हैं, लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ो में जो दर्द छुपा है उसे कोई देख नहीं पाता है। देवाल विकासखण्ड के ओडर गांव में जहां अपने घर पहुंचने के लिए ,ग्रामीण ,छोटे छोटे मासूम बच्चे,और मातृशक्ति कहलाई जाने वाली पहाड़ की नारी उफनती नदी पर लकड़ी के बने पुल से आवाजाही को मजबूर हैं।
दरअसल 2013 की आपदा से पहले यहां जिला पंचायत का एक पुल हुआ करता था। 2013 कि आपदा इस पुल को भी बहा ले गई। ये पुल ओडर,ऐरठा, ओर बजई के हजारों ग्रामीणों के आवागमन का एकमात्र विकल्प था। यू तो कहने को ग्रामीणों के ज्ञापनों का संदर्भ लेते हुए लोक निर्माण विभाग ने यहां ग्रामीणों की आवाजाही के लिए ट्रॉली भी लगवाई है।
लेकिन केवल बरसात के दिनों में इस ट्रॉली का लाभ ग्रामीणों को मिल पाता है। बाकी पूरे 9 माह ग्रामीण अपने खुद के संसाधनों से श्रमदान कर नदी के ऊपर लकड़ी डालकर पुल बनाते हैं, ताकि आवाजाही हो सके। ग्रामीणों की माने तो शासन प्रशासन से गुहार लगाते-लगाते पूरे 7 साल होने को आये हैं ,चुनावों में इन गांवों के ग्रामीणों को पुल की आस के ढांडस बंधाये तो जाते हैं। लेकिन चुनाव खत्म होते ही दोबारा इन लकड़ी के पुलों से ही ग्रामीण आवाजाही को मजबूर हो जाते हैं। सरकार को इन ग्रामीणों की मजबूरी दिखती ही नही है और विपक्ष में बैठी कांग्रेस ये मुद्दे नजर ही नही आते है।
ओडर के ग्रामीणों ने बताया कि 2013 की आपदा में उनके गांव को जोड़ने वाला पुल बह गया था। लेकिन तब से लगातार शासन प्रशासन से पत्राचार के बावजूद भी अब तक उन्हें पुल की सौगात नहीं मिली। लिहाजा ग्रामीण जान हथेली पर रखकर लकड़ी के पुल से ही आवागमन को मजबूर हैं।
वहीं लोक निर्माण विभाग थराली के अधिशासी अभियंता जगदीश रावत ने बताया कि आपदा में बहा पुल लोक निर्माण विभाग का नही था। साथ ही उन्होंने बताया कि 2014 में विभाग ने वहां पर ट्रॉली लगवाई थी, जो केवल बरसात के दिनों में सुचारू रूप से चलाई जाती है।
(मोहन गिरी की रिपोर्ट)