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नेता बनने को बेताब, लोकतंत्र की कब्र खोद डालेंगे नौकरशाह

नौकरशाह राजनीति की दुनिया में छलांगें लगाने पर उद्धत हैं या नौकरशाहों को राजनीति में लाकर भाजपा भारतीय राजनीति का लोकतांत्रिक स्वरूप बदलने की कोशिश कर रही है? अपराधिक छवि और अनपढ़-अयोग्य नेताओं की जमात को राजनीति से साइडलाइन कर अच्छे चरित्र के शिक्षित योग्य नागरिकों को राजनीति की मुख्य धारा में लाने के बजाय नौकरशाहों को फ्रंटलाइन में लाने की कोशिशें लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक साबित होने वाली हैं।

By RNI Hindi Desk 
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प्रभात रंजन दीन की कलम से

लखनऊ: राजनीतिक पदों पर भी नौकरशाहों के काबिज होने से लोकतंत्र का संवैधानिक चरित्र क्या अक्षुण्ण रह पाएगा? इस पर देश के लोग गंभीरता से विचार क्यों नहीं कर रहे हैं? गौर से देखें तो आजादी के बाद से देश को नौकरशाह ही तो चला रहे हैं। केंद्र से लेकर राज्य तक सम्पूर्ण सरकारी तंत्र पर नौकरशाहों का कब्जा है। मंत्री के सचिव से लेकर तमाम सरकारी विभागों के प्रमुख सचिव, सचिव, संयुक्त सचिव और सभी सरकारी उपक्रमों के प्रमुख, आईएएस अधिकारी रहते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री का कार्यालय और सचिवालय आईएएस अफसर ही चलाते हैं। भारतीय लोकतंत्र को आईएएस-तंत्र कहें तो यह अतुकांत बात नहीं होगी। विशेषज्ञीय विधाओं वाले विभाग के प्रमुखों के पद भी आईएएस के कब्जे में हैं। स्वास्थ्य, तकनीक, विज्ञान, ऊर्जा, शिक्षा, संस्कृति, कानून… यहां तक कि रक्षा और गृह जैसे विशेषज्ञीय महकमों के शीर्ष पदों पर भी आईएएस अधिकारी ही काबिज हैं। रक्षा सचिव का पद सेना अधिकारी के लिए और गृह सचिव का पद पुलिस अधिकारी के लिए होना चाहिए, लेकिन अदूरदर्शी नेताओं ने पूरे तंत्र पर आईएएस अफसरों का एकाधिकार स्थापित करने का मौका दे दिया। आप इस देश की विडंबना देखिए कि सिविल सेवा का अधिकारी रक्षा विभाग का प्रमुख होता है और सेना का शीर्ष अधिकारी उसके नीचे होता है। आजादी के बाद से सत्ताधारी नेताओं ने कभी भी विशेषज्ञीय विधाओं वाले विभागों को उसी क्षेत्र के विशेषज्ञों के हाथों में सौंपने का लोकतांत्रिक धर्म नहीं निभाया। जो थोड़े बहुत पद बचे उसे आईपीएस अधिकारियों के लिए छोड़ दिया गया। पुलिस से सम्बन्धित विभागों के सारे शीर्ष पद आईपीएस अधिकारियों ने हथिया लिए।

कैडर के अधिकारियों को अपने महकमे का प्रमुख बनने का कोई अधिकार ही नहीं दिया गया। यह कैसा लोकतंत्र बनाया गया भारत में? बीएसएफ का शीर्ष अधिकारी बीएसएफ कैडर का क्यों न हो? सीआरपीएफ का शीर्ष पद सीआरपीएफ कैडर के अधिकारी को क्यों न मिले? आईटीबीपी, एसएसबी या सीआईएसएफ जैसे बलों का प्रमुख इन्हीं बलों का योग्य कैडर अधिकारी क्यों न बने? बीते सात दशकों में इस तरह की प्रणाली क्यों नहीं विकसित की गई? आप देखें, अर्ध सैनिक बल की सारी शाखाओं के शीर्ष पद आईपीएस के कब्जे में हैं। यहां तक कि खुफिया एजेंसियों के शीर्ष पद भी खुफिया एजेंसियों के काडर अधिकारियों को नहीं दिए जाते। ऐसा क्यों? भारतीय लोकतंत्र में योग्यता को कभी कोई तरजीह नहीं दी गई। अब धीरे-धीरे आईएएस का जाल राजनीति को अपने चंगुल में कसने की तरफ बढ़ रहा है। इस बारे में खुश होने के बजाय सतर्क होने की जरूरत है। अगर आईएएस ही देश को अच्छे से चला लेता तो आजादी के बाद से इस देश का कबाड़ा क्यों निकलता चला गया? भ्रष्टाचार से यह देश क्यों आक्रांत होता चला गया? पूरे देश में प्रशासन (गवर्नेंस) के बजाय लाल फीताशाही और प्रशासनिक अराजकता क्यों व्याप्त होती चली गई? आईएएस ने मंत्रियों को बंद कमरों में समझाया-बुझाया, उकसाया, ब्लैक-मेल किया और भ्रष्ट बनाया। मंत्रियों को हिस्सा खिलाया और खुद गटका… इसी प्रक्रिया में तो देश का पूरा ढांचा जर्जर हुआ है! इस पर हम कभी सोचते क्यों नहीं? इस देश को जितनी भी लोकतांत्रिक उपलब्धियां हासिल हुई हैं, उनमें एक भी नाम उस आईएएस अफसर का बता दीजिए जो आईएएस छोड़ कर नेता बना हो? जो आईएएस या आईपीएस अफसर रिटायरमेंट के बाद इमानदारी पर बड़ा-बड़ा व्याख्यान देता है, वह तब कहां था जब सर्विस में था? आप ऐसे अफसरों के सर्विस रिकॉर्ड में झांकें तो आपको असलियत पता चले। या तो वे खुद बहती गंगा में हाथ धो रहे थे, या मौन रह कर स्वचालित प्रक्रिया से आने वाला धन प्राप्त कर रहे थे और इमानदार होने का भ्रम पाल रहे थे। वे तब चुप क्यों थे, जब उनके बोलने का मतलब होता? राजनीति की धारा को हम सात दशकों में भी शुद्ध नहीं कर पाए, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।

 

आईएएस या आईपीएस रहते हुए जो समाज सेवा नहीं कर पाया वह राजनीति में आकर देश सेवा क्या करेगा? उसे सिविल सेवा या पुलिस सेवा करते हुए राजनीति से इतना प्यार क्यों हो जाता है कि वह उसके लिए इस्तीफा देने पर उद्धत हो जाता है? फिर उसकी निष्पक्षता पर सवाल कैसे नहीं उठे? नौकरी से रिटायर होकर राजनीति में दाखिल होने वालों की बात अलग है। रिटायर्ड अधिकारियों का यह लोकतांत्रिक अधिकार है कि वह राजनीति में जाए या कोई अन्य काम करे। जैसा सेना के अधिकारी रिटायर होने के बाद करते हैं। जैसा जनरल वीके सिंह, जनरल जेजे सिंह, कर्नल डीबीएस रावत या अन्य सेनाधिकारियों ने किया। लेकिन आईएएस और आईपीएस या ऐसी शीर्ष सरकारी नौकरी बीच में ही छोड़ कर राजनीति में प्रवेश करने की इजाजत क्यों दी जाती है? ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई करने के बजाय सत्ताधारी पार्टी या कोई अन्य पार्टी चुनाव लड़ने का टिकट क्यों देती है? यह राजनीतिक दल के शीर्ष नेताओं से पूछा जाना चाहिए। या इन नेताओं ने देश की राजनीति को अपना पैतृक अधिकार समझ रखा है? देश का लोक कमजोर होगा तो लोकतंत्र कुछ लोगों के बाप का माल हो ही जाएगा।

 

1994 बैच के आईपीएस अधिकारी और कानपुर के पुलिस कमिश्नर असीम अरुण का नाम अभी ताजा है। आठ जनवरी को उन्होंने नौकरी छोड़ी और आठ दिन बाद ही 16 जनवरी को उन्होंने भाजपा की सदस्यता ले ली और हफ्तेभर बाद ही असीम अरुण को कन्नौज से चुनाव लड़ने के लिए भाजपा का टिकट भी मिल गया। जैसे सब पहले से सेट था। यह नाम तो उदाहरण के लिए आपके सामने रखा, क्योंकि यह बिल्कुल ही ताजा प्रकरण है। इसी तरह के कई नाम हैं।

पिछले ही दिनों आपने देखा किस तरह गुजरात कैडर के आईएएस अधिकारी अरविंद कुमार शर्मा नौकरी छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए और भाजपा ने उन्हें उत्तर प्रदेश में लॉन्च कर दिया। आनन-फानन उन्हें विधान परिषद का सदस्य भी मनोनीत कर दिया गया। भाजपा के कार्यकर्ता मुंह ताकते और जिंदाबाद जिंदाबाद करते रह गए।

वर्ष 2014 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ कर जीतने वाले सत्यपाल सिंह भी मुंबई पुलिस कमिश्नर की नौकरी छोड़ कर भाजपा में आए थे। ऐसे उदाहरण कई हैं। देश की प्रभावशाली विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के निधन से खाली हुए पद पर आईएफएस अधिकारी सुब्रमण्यम जयशंकर को स्थापित कर दिया गया। जबकि कई अच्छे और योग्य राजनीतिज्ञ कतार में थे। जयशंकर तो चुनाव भी नहीं लड़े, उन्हें तो सीधे ही राज्य सभा के लिए नॉमिनेट कर दिया गया।

यह भारत का लोकतंत्र है। राजनीति के चमकदार शामियाने में दाखिल होने के लिए नौकरशाहों में पूरे देश में क्रेज है। कर्नाटक के आईएएस एस. शशिकांत सेंथिल नौकरी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो चुके हैं। तमिलनाडु के आईपीएस अन्नामलाई को कांग्रेस अपनी पार्टी में ले गई। ओड़ीशा कैडर की आईएएस अधिकारी अपराजिता सारंगी 2018 में ही नौकरी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गई थीं। आईएएस अधिकारी ओपी चौधरी भी भाजपा में शामिल होने के लिए रायपुर के जिलाधिकारी के पद से इस्तीफा दे चुके हैं। हाल ही में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान डीआईजी का पद छोड़ कर सवाई सिंह चौधरी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे। कई ऐसे भी अधिकारी हैं जिन्होंने नौकरी से इस्तीफा देकर अपनी चहेती पार्टी में चहेता अवसर पाने का जतन किया और बात नहीं बनी तो इस्तीफा वापस लेकर फिर से नौकरी करने लगे। ऐसे अफसरों की प्रतिबद्धता की गारंटी कौन लेगा?

राजस्थान के आईपीएस अधिकारी मदन मेघवाल ने 2018 में स्वैच्छिक रिटायरमेंट का आवेदन दाखिल कर दिया था, लेकिन जब विधानसभा चुनाव में उन्हें कांग्रेस से टिकट नहीं मिला तो उन्होंने अपना आवेदन वापस ले लिया और फिर से नौकरी करने लगे। जम्मू-कश्मीर के आईएएस अफसर शाह फैसल ने तो अपनी पार्टी ही बना ली थी। लेकिन अनुच्छेद 370  निरस्त होने के बाद फैसल ने आईएएस की नौकरी फिर से ज्वाइन कर ली। यही काम 1992 बैच के आईपीएस अफसर दावा शेरपा ने भी किया। उन्होंने 2008 में वीआरएस के लिए आवेदन किया और 2012 तक छुट्टी पर रहे। इस दौरान उन्होंने भाजपा की सदस्यता भी ले ली। शेरपा चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन टिकट नहीं मिला तो उन्होंने 2013 में फिर से नौकरी ज्वाइन कर ली। दावा शेरपा फिर से नौकरी में शामिल भी हो गए और उन्हें प्रमोट कर डीआईजी भी बना दिया गया। दावा शेरपा बाद में गोरखपुर जोन के एडिशनल डीजी भी बने। है न अपना मजेदार लोकतंत्र।

विडंबना यह है कि वर्ष 2012 में चुनाव आयोग ने सरकार को सिफारिश भेजी थी कि रिटायरमेंट या इस्तीफे के तुरंत बाद किसी नौकरशाह को राजनीति में आने से रोका जाना चाहिए। आयोग ने सुझाव दिया था कि नौकरशाहों के राजनीति में आने से पहले दो साल का कूलिंग पीरियड तय कर दिया जाना चाहिए। लेकिन सरकार ने चुनाव आयोग की यह सिफारिश नहीं मानी। तब चुनाव आयोग का स्पष्ट कहना था कि नौकरी छोड़ने के तुरंत बाद नौकरशाहों का राजनीति में प्रवेश करना अनैतिक है। तब और अब में चुनाव आयोग काफी बदल चुका है। नैतिकता और अनैतिकता के पैमाने भी बदल गए हैं।

 

यही नैतिकता और अनैतिकता का भेद भुनाते हुए अरविंद केजरीवाल आईआरएस की सरकारी नौकरी छोड़ कर राजनीति में कूद पड़े और दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गए। ऐसे लोगों के नाम गिनते चलें और उनके चेहरे सामने याद करते चलें। उन चेहरों में छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, मौजूदा केंद्रीय मंत्री आरके सिंह, हरदीप सिंह पुरी जैसे कई चेहरे आपको याद आते जाएंगे। आईएएस, आईएफएस और आईपीएस की नौकरी छोड़ कर विभिन्न राजनीतिक दलों में शामिल होने और बड़े पद पाने वाले चेहरों में यशवंत सिन्हा, मणिशंकर अय्यर, के. नटवर सिंह जैसे कई अन्य चेहरे भी सामने हैं… उत्तर प्रदेश में अहमद हसन, पीएल पूनिया, श्याम सिंह यादव, बृजलाल, त्रिभुवन राम, चन्द्रपाल, श्रीशचन्द्र दीक्षित, देवेन्द्र कुमार राय, रामरतन, देवी दयाल, एसके वर्मा, महेन्द्र सिंह यादव, आरपी शुक्ला, तपेन्द्र प्रसाद, बीपी सिंघल जैसे अनगिनत नाम हैं, जो प्रशासनिक या पुलिस सेवा की नौकरी छोड़ कर राजनीति में ‘जनसेवा’ करने आए। नौकरी में रहते हुए क्या किया और राजनीति में आकर कितनी जन-सेवा की, यह जन तो जानते ही हैं। इन नौकरशाह-नेताओं ने भारतीय लोकतंत्र के विकास में क्या योगदान दिए, इसकी कहीं कोई शिनाख्त नहीं।

भारत के लोकतंत्र के निर्माण में दो नौकरशाहों की अभूतपूर्व भूमिका इतिहास के पन्नों में खो गई है। आपने इनके नाम कभी सुने नहीं होंगे। नेताओं ने ऐसे व्यक्तित्वों से देश का परिचय ही नहीं होने दिया। व्यक्तिगत स्वार्थतंत्र को अपने भ्रष्ट आचरण से मजबूत करने और भारतीय लोकतंत्र को खोखला करने वाले तमाम पेशेवर नेताओं और सियासत के धंधे में उतरने वाले नौकरशाह-नेताओं के चेहरों पर कुछ नौकरशाहों के अभूतपूर्व काम कालिख पोतते हैं, भले ही आप उनके नाम न जानते हों। लेकिन इतना जान लें कि आज भारत का जो सम्प्रभु, लोकतांत्रिक और गणतंत्रात्मक स्वरूप आप देख रहे हैं, उसका श्रेय उन्हीं अनाम नौकरशाह-योद्धाओं को जाता है, जिनके बिना भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप का स्वप्न कभी धरातल पर नहीं उतरता।

 

स्खलित राजनीति के पृष्ठों से अलग होते हुए हम थोड़ा फ्लैशबैक में चले और उन दो नौकरशाहों को देखें… ये हैं बीएन राव और सुरेंद्र नाथ मुखर्जी यानी एसएन मुखर्जी। कभी सुना है आपने इनका नाम? बीएन राव के बारे में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, राव वह नौकरशाह थे जिन्होंने भारतीय संविधान की योजना की कल्पना की थी और उसकी नींव रखी थी। संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार के रूप में बीएन राव ने न केवल देश की सबसे पहली निर्वाचक नामावली तैयार कराई थी, बल्कि यह भी आधार तैयार किया था कि संविधान सभा के सदस्य भारत के संविधान का मसौदा कैसे तैयार करेंगे। 26 फरवरी 1887 को कर्नाटक के मैंगलोर में जन्मे बीएन राव के पिता बीआर राव शहर के प्रमुख डॉक्टर थे। राव ने 1909 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा पास की थी और उन्हें बंगाल में पहली तैनाती मिली थी। राव संवैधानिक दृष्टिकोण से सार्वभौमिक मताधिकार बनाने की प्रक्रिया का मार्गदर्शन करने में अग्रणी प्राधिकारी थे। राव की टीम ने संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड और यूनाइटेड किंगडम की यात्रा की, जहां उन्होंने संवैधानिक कानून पर विद्वानों, न्यायाधीशों और अधिकारियों के साथ विषद परामर्श किया। अक्टूबर 1947 में संविधान सभा द्वारा संविधान का पहला मसौदा तैयार करने से पहले, बीएन राव ने विभिन्न देशों के संविधान के मूल तत्वों की तुलना का गहन विश्लेषण किया था। तत्कालीन बर्मा संघ (म्यांमार) के लिए एक नए संविधान के प्रारूपण में भाग लेने का भी बीएन राव को अनूठा गौरव प्राप्त हुआ था।

सुरेंद्रनाथ मुखर्जी के बारे में संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि जटिल से जटिल प्रस्तावों को सरल और स्पष्ट बनाने की मुखर्जी की क्षमता बेजोड़ है। अंबेडकर ने कहा, “एसएन मुखर्जी की मदद के बिना, इस सभा को संविधान को अंतिम रूप देने में कई और साल लग जाते।” एसएन मुखर्जी ही मुख्य व्यक्ति थे जो संवैधानिक और मताधिकार के मामलों के बारे में सीधे प्रशासकों और जनता के साथ संवाद करते थे। ऐसा करने के कारण वे चुनावी लोकतंत्र के संस्थागत प्रक्रियात्मक सिद्धांतों में नौकरशाहों और जनता को सलाह देने की प्रक्रिया के आदर्श वाहक बन गए थे। संयुक्त सचिव का पद संभालते हुए सुरेंद्र नाथ मुखर्जी ने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए भारत की संविधान सभा के मुख्य ड्राफ्ट्समैन की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

 

इन नौकरशाही दिग्गजों ने विपरीत परिस्थितों में जो काम किया वह आश्चर्यजनक है। ब्रिटिश सामंती और औपनिवेशिक शासन की छाया से बाहर निकलने की कोशिश करते हुए देश में सख्त ब्रिटिश ब्यूरोक्रैटिक प्रोटोकोल, सामाजिक अराजकता और विरोधाभासों के बीच राष्ट्र-निर्माण का कठिन कार्य करने वाली ये विभूतियां वाकई प्रणम्य हैं। बीएन राव की टीम में शामिल एसएन मुखर्जी के साथ-साथ संविधान सभा के अंडर सेक्रेटरी केवी पद्मनाभन, पीएस सुब्रमण्यम, अनुसंधान अधिकारी एए आबिदी और बृज भूषण को भी हमें हृदय से याद करना चाहिए। ये भारत के लोकतंत्र के गुमनाम नायक हैं

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