हाल ही में केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून 1955 में बदलाव करते हुए नागरिकता देने के नियमों में बदलाव किया है, नये कानून के तहत भारत के तीन पड़ोसी देशों बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए अवैध गैर मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है जिसकी वजह से अब जो प्रवासी 31 दिसम्बर 2014 से भारत में अवैध रूप से रह रहे है अब भारतीय नागरिकता हेतु आवेदन कर सकेंगे।
इस कानून का पूर्वोत्तर के राज्यों में ख़ास तौर से असम में ख़ासा विरोध हो रहा है और उसकी सबसे बड़ी वजह है कि नागरिकता कानून और NRC दोनों को ही लेकर असम की जनता में भय और भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी हैं। असम की जनता का कहना है कि नागरिकता कानून पास होने के बाद लाखों शरणार्थी अब भारत की नागरिकता ले पायेंगे और उसके कारण असम की संस्कृति नष्ट हो जायेगी, उनका कहना है कि 24 मार्च, 1971 के बाद असम आए सभी प्रवासियों को राज्य से बाहर निकाला जाए।
अब असम की विडंबना यह है कि असम की जनता 1985 में हुए असम समझौते और नागरिकता कानून 2019 में फर्क नहीं समझ पा रही हैं, दरअसल 1979 में असम के मंगलदोई लोकसभा उपचुनाव में वोटरों की संख्या में भारी वृद्धि हुई और जांच में सामने आया कि ऐसा बांग्लादेश से आये भारी अवैध प्रवासियों के कारण हुआ जिसके बाद उनके खिलाफ एक आंदोलन शुरू हुआ जिसमे अनुमान है कि 2000 से ज्यादा बांग्लादेशियों को मार दिया गया जिसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में एक समझौता किया जिसमें यह निर्णय लिया गया कि 25 मार्च 1971 के बाद असम में आए विदेशियों की पहचान कर उन्हें देश ने बाहर निकाला जाए.
आखिर कई सालों के इंतज़ार के बाद राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में असम में तैयार किया गया और 31 अगस्त, 2019 को एनआरसी अपडेट किए जाने तक 19 लाख लोगों को इस लिस्ट से बाहर रखा गया जिसमे 10 लाख के करीब हिन्दू आबादी है और अब असम के लोगों का कहना है कि नागरिकता कानून के आने के बाद इन सबको भारत की नागरिकता मिल जायेगी तो ऐसे में NRC का फायदा क्या हुआ ?
असम का मामला जितना आसान दिखाई दे रहा हैं उतना है नहीं, दरअसल 1985 में जब राजीव गांधी ने समझौता किया तो शांति तो हुई लेकिन ऐसा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया जिससे कि बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों को रोका जा सके, साल 1990 में जब बांग्लादेश में बांग्लादेश राष्ट्रवादी पार्टी ने कमान संभाली तो हिन्दुओं पर अत्याचार बढ़ गये और साल 1996 आते आते लाखों हिन्दू असम, मेघालय और त्रिपुरा जैसे राज्यों में आकर बस गये और जब NRCअपडेट किया गया तो इन सबके नाम जाहिर सी बात है गायब थे।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार इन लोगों को वापिस भेज सकती है ? अगर ऐसा होता है तो वो देश विहीन हो जाएंगे और उनके सामने नयी समस्याएं पैदा हो जायेगी और यही कारण है कि सरकार ने नागरिकता कानून में परिवर्तन किया है और इसी के साथ सरकार ने उन सभी गैर मुस्लिमों का भी ध्यान रखा है जिन्हें धार्मिक आधार पर प्रताड़ना झेलनी पड़ती हैं।
वही अगर धार्मिक आधार पर देखे तो पाकिस्तान का गठन ही धर्म के आधार पर हुआ है और ऐसे में नागरिकता कानून का यह कहकर विरोध करना कि इससे घुसपैठ बढ़ेगा और असमी लोगों को दिक्क्त आयेगी तो यह बचकाना लगता है। समस्या दरअसल यह है कि पिछली सरकारों ने इस घुसपैठ को रोकने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाये और अब जब देश की सरकार अवैध प्रवासियों को लेकर एक रोडमैप लेकर आयी है तो कुछ दल और नेता भाषा और संस्कृति की दुहाई देकर राजनीतिक और चुनावी लाभ के लिए जनता का इस्तेमाल कर रहे हैं।
अंत में, देश का हित सिर्फ इसमें है कि इस समस्या से निपटनें के लिये सरकार का सहयोग किया जाए, अगर किसी कारण से यह प्रोसेस रुकता भी है तो भविष्य में इस अवैध घुसपैठ की समस्या से निपटना बहुत मुश्किल हो जायेगा।