देश में इस वक़्त नागरिकता कानून को लेकर बहस चल रही है, देश की कई यूनिवर्सिटीज में इस कानून को लेकर प्रदर्शन हो रहे है, फर्क सिर्फ इतना है की कही समर्थन में प्रदर्शन हो रहा है तो कही विरोध में हो रहा है और फैज़ अहमद का नाम अब जाने अनजाने इस विवाद से जुड़ गया है.
दरअसल इस मामले की पृष्ठ्भूमि में आपको लिए चलते है, 15 दिसम्बर को जामिया मिलिया इलाके में नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन होता है, उसके बाद आरोप लगाया जाता है की पुलिस ने लाइब्रेरी और होस्टल में जाकर महिला छात्रों समेत कई लोगों की पिटाई की.
इन सबके बाद IIT कानपुर के छात्रों की तरफ से प्रदर्शन का एलान किया जाता है, जिसके बाद 17 दिसम्बर को इस कानून के विरोध में प्रदर्शन होते है, अब मसला ये है की इस प्रदर्शन में फैज़ अहमद की एक नज़्म गाकर विरोध किया गया।
इसके बाद माना जा रहा है की कुछ छात्रों ने आईआईटी निदेशक के पास जाकर शिकायत की, उनकी तरफ से लिखा गया की उनकी यह नज़्म हिन्दू विरोधी है और जैसे ही ये शिकायत सामने आती है प्रबंधन इस मसले पर जांच बिठा देता है। उनकी नज़्म की इन 4 पंक्तियों पर विरोध है।
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
दरअसल फैज़ अहमद एक मशहूर शायर थे और उन्हें अक्सर सत्ता विरोधी लेख लिखने वाला माना गया था, 13 फरवरी 1911 को फैज़ का जन्म तत्कालीन पाकिस्तान में हुआ था। इतिहास को जानने वाले कहते है की वो एक कम्युनिस्ट शायर थे, ये बात अलग है की उन्हें हिन्दू और उर्दू दोनों का चाहने वालो से भरपूर प्रेम प्राप्त हुआ।
बचपन में ही उन्होंने अरबी, फ़ारसी और उर्दू सीख ली थी वही अरबी में आगे की पढाई पूरी की, मुल्क के बटवारे के बाद राजनीतिक तौर पर वो सक्रिय हुए और उन्हें कई बार गिरफ्तार भी किया गया, 1977 में ज़िया-उल-हक़ ने जब सरकार का तख्ता पलट किया उसके बाद उनकी नीतियों के विरोध में उन्होंने माना जाता है की यह नज़्म लिखी।
दरअसल फैज़ की जिस नज़्म का ज़िक्र हो रहा है वो उन्होंने 1979 में ही लिख दी थी, नज़्म की शुरुआत होती है ” हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे “, और उसका संदर्भ दरअसल पाकिस्तान के तानाशाह के खिलाफ था लेकिन इस नज़्म को लोकप्रियता तब मिली जब पाकिस्तान की मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने इसे लाहौर के अलमोहरा स्टेडियम में गाया था और साल था 1986 .
दिलचस्प यह भी है की उन्होंने जब ये नज़्म गायी तो साड़ी पहनी हुई थी और उस वक़्त जनरल जिया उल हक़ ने साड़ी प्रतिबंधित कर दी थी क्योंकी उनका यह मानना था की साड़िया हिन्दू महिलायें ही पहनती है और उस दौर में इक़बाल बानो ने लगभग 50,000 लोगों की भीड़ के सामने साड़ी में यह नज़्म गायी थी।
जैसे ही इसकी पंक्ति आयी ‘सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे’ वैसे ही खचाखच भरे उस हॉल में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ के ख़ूब नारे लगे।
माना जाता है की यह नज़्म उस दौर के बाद से सरकार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शन का हिस्सा बन गयी थी और फैज़ अहमद की यह नज़्म उस दौर के बाद अमर हो गयी। उनके इस वीडियो को चोरी छुपे रिकॉर्ड किया गया था और बड़ी मुश्किल ऑडियो की कॉपी बचायी गयी, कहने वाले तो इतना तक कहते है की उनके पीछे जासूस तक लगवाये गए।
अब सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है की क्या ये नज़्म हिन्दू विरोधी है ? अगर आप तथ्यों पर निगाह डाले तो यह नज़्म सबसे पहले तो पाकिस्तान के तानाशाह के खिलाफ लिखी गयी, दूसरा यह पहली बार नहीं है की उनकी इस नज़्म को गाकर प्रदर्शन किया गया हो, इससे पहले नेपाल में भी राजशाही के खिलाफ जब आंदोलन हुआ था तो यह नज़्म गायी गयी थी और वही 17 दिसम्बर को IIT कानपुर में दोहराया गया है।
यहां समझने वाली एक बात यह भी है की इस देश में लोकतंत्र है और उस दौर में पाकिस्तान में तानाशाही थी तो इस नज़्म का संदर्भ अगर किसी प्रधानमंत्री को जो की लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया है तानाशाह कहना है तो ये बिल्कुल गलत है लेकिन हम यह भी समझना होगा की किसी शायर की नज़्म कभी किसी धर्म के खिलाफ नहीं बल्कि व्यवस्था के खिलाफ होती है।
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो